Walking is a necessity for pahadi people because they can’t get along without walking. Snowfall, landslides, glaciers, avalanche, and global warming is their reality. For city dwellers, walking has become a necessity to keep a check on their physical, mental, sexual, and spiritual issues. For pahadi people, walking is a necessity because there is no other option.
My good friend, Naveen Boktapa, a professional Animation Designer from Tandi (Lahaul Valley) shares his story of walking in fresh snow over the mighty Rohtang Top. He walked 77.6 kilometers (approximately), traveled in the backseat of a car, and yet he claims that it wasn’t that difficult. Students, patients, pregnant ladies, teachers, and everyone who has got something to do with the Lahaul, Spiti, or Chamba region walk over the snow, mountains, and water bodies to reach home. Life in the Himalayas is indeed difficult, just that their definition of difficulty and danger is bit different.
Let us hear it from Mr. Naveen Boktapa.
ज़िंदगी के शुरुआती 16 सालों मे मैं अपने घर से 16 किलो मीटर दूर भी नही गया था| कभी जाने की ज़रूरत भी नही पड़ी| सुना था या पढ़ा था की दुनिया गोल है पर जो स्ट्रक्चर मैं ने देखा था उस मे वो गोलाई कहीं ढूंढ नही पाया| पथरीले पहाड़ों के ऊपर टिका नीला सपाट आसमान, गोल कहाँ से हुआ? कई बार नाना जी से ज़िद की कि सीढ़ी ले के जाएँगे उस चोटी पे और आसमान मे चढ़ेंगे| बाहर की दुनिया मे कुल्लू मनाली के अस्तित्व पर यकीन था क्यों की लोगों को जाते और वहाँ से वापस आते हुए देखा था| जाने की हसरत थी पर उस टाइम उस हसरत की वैल्यु बिलकुल वैसी थी जैसे अभी अमरीका जाने की है| शिमला दिल्ली चंडीगड़ तो सिर्फ़ टीवी मे देखे थे और वहाँ जाने की सोचना जैसे चाँद पे जाना. खैर, जब भी कुल्लू मनाली के बात चलती, एक महाशय हमेशा चर्चा मे आते, रोहतांग पास, या आम ज़ुबान मे ‘टॉप’]Rohtang Top].
जब अप्रैल-मई मे बर्फ पिघलनी शुरू होती है और GREF और BRO मनाली लेह नॅशनल हाइवे से बर्फ की सफाई शुरू करना शुरू करते हैं तभी से लोग रोहतांग पास को पैदल क्रॉस करना शुरू कर देते हैं| ४-५ महीने से लाहौल मे फंसे लोगों को बाहर खरीददारी, चिकित्सा या रिश्ते नाते निभाने जाना होता है और जो लोग बाहर थे उन्हे जल्दी घर आ कर परिजनो से मिलना या खेतीबाड़ी का काम शुरू करना होता है| ये यात्रा ऐसी जिस मे लोग जान हथेली पे लेके चलते हैं| इसे मजबूरी कहें, बहादुरी या लोगों के हार ना मानने का ज़ज़्बा, लगभग हर लाहौली ने रोहतांग को कई पार क़दमों से नापा है|
इस दर्रे की सब से खतरनाक कहानी मैंने अपने भाई की ज़ुबानी सुनी जब पहली बार उस ने इस पे झण्डा गाड़ा. मेरे भाई साब मेरे लिए सूपर हीरो हैं, और मैं हमेशा उनके जैसा बनना चाहता हूँ. ये अलग बात है कि ह्म दोनो की मासपेशियों को बनाने मे इस्तेमाल हुई मटेरिअल मे ज़मीन आसमान का फ़र्क है| कैसे बरफ पर बने २-२ फीट गहरे पैरों के निशान २ सेकेंड्स मे मिट जाते है| इस सब हालात मे भी अपने ‘स्पिरिट’ को ‘हाइ’ रखना बहुत ज़रूरी होता है, बस मुट्ठी भर ग्लूकान डी मूह मे फांको और ‘तुरंत शक्ति‘ का नारा लगा के बढ़ते जाओ. वक्त गुज़रा और उच्च शिक्षा के बहाने मुझे भी कुल्लू जाने का वीज़ा मिल गया. मा कसम चकाचौंध ऐसी कि आँखें खराब हो गई. चौड़ी सड़कें, इतनी सारी गाड़ियाँ, जगमगाते इश्तिहार, लाइन से लगी दुकाने, ज्वाइंट लगाते लड़के और अँग्रेज़ी मे बोलने वाली लड़कियाँ|
और वो वक्त भी आया जब मुझे घर वापस आने के लिए मनाली से कोकसर (७० किलोमीटर) तक का सफ़र पैदल तय करना था. २००२ अप्रेल का वक्त था और मनाली लेह हाइ वे से बर्फ की सफाई शुरू हो चुकी थी. मनाली से ले कर मॅढी से दो मोड़ नीचे तक का रास्ता छोटी गाड़ियों के लिए खुल चुका था और दूसरी तरफ लाहौल से खबर थी कि गाड़ियाँ कोकसर तक पहुच रही हैं| इस वक्त वादी मे मटर की बीजाई शुरू होने वाली होती है और भारी तादाद मे लोकल जनता और नेपाली मजदूर मनाली से लाहौल की तरफ कूच करते हैं|
अगली सुबह ३ बजे हमे निकलना था. अपने बदन को गरम रखने का जितना हो सके उतना इंतज़ाम कर लिया गया. गरम टोपी, मफ्लर, गॉगल्स, दस्ताने, ऊनी जुराबें, इन सब के बगैर सफ़र के बारे मे सोचना जैसे आस्ट्रेलियाई पिच पर बगेर रक्षा कवच पहेने बल्लेबाजी करने जैसा था. रात को सफ़र के लिए खाने पीने का जुगाड़ बांध लिया गया. मेरे बैग मे 8 पराठे और पानी की २ बोतलें आई| हम ने दो दो कप चाय हलख मे उडेली और जय राजा घेपण, जय भोले नाथ का नारा लगा के ३ बजे सफ़र का शुभारंभ किया| आसमान मे तारे थे और अंधेरे मे बरफ की दो दीवारों के बीच पतली सड़क पर गाड़ी की सवारी गज़ब की फीलिंग दे रही था| ५:३० बजे हम उस पहाड़ के सीने पर पहुच गये जहाँ पर आ के मनु महाराज ने भी गिव अप मार दिया और कुलान्थपिथा ( Kulanthpitha – `the end of the habitable world’) का नाम करण कर दिया| सो अब गाड़ियों का रास्ता ख़तम हो चुका था और आगे की खड़ी चढ़ाई के लिए अपने दो पैरों का ही सहारा था| अंधियारा काफ़ी कम हो चुका था और आस पास का नज़ारा दिखने लगा था| २५-३० गाड़ियाँ हम से पहले ही पहुच चुकी थी और उन गाड़ियों से निकलती एक लंबी चीटियों जैसी लाइन ऊपर क्षितिज तक जाती दिख रही थी| हमे भी उसी लाइन का हिस्सा बनना था|
हमारा जत्था भी कूच कर गया और हम सब एक लाइन मे एक के पीछे एक हो के चढ़ने लगे| इस सिंगल फाइल फॉर्मेशन के पीछे का रहस्य ये है कि बर्फ मे हर कोई अपने आप से नही चल सकता| ताज़ी पड़ी बर्फ मे पेर धँसने लगते हैं जो फौलादी, भोकाली शरीर वाले इंसान को भी तिगुने रफ़्तार से थका सकती है| सो कोई एक बंदा आगे आगे चल के बर्फ को पैरों से दबा कर एक संकरी सी पगडंडी निकालता है और बाकी लोग पीछे पीछे उसी पगडंडी पर चलते हैं| जवानी के जोश मे मेरे कदमो मे रफ़्तार थी| पर मढ़ी तक पहुचते पहुचते सारे जोश की हवा निकल चुकी थी| कदम उठाना मुश्किल हो रहा था, और फेफड़े जवाब दे रहे थे| समझ आया की खरगोश नही कछुवा बनने मे ही भलाई है| दो घूँट पानी के साथ थोड़ा ग्लूकान डी खाया गया पर ऐसी ठंड मे पानी पीना अपने दाँतों पे सरासर अत्याचार करना था| थोड़ी और चढ़ाई के बाद घने कोहरे के साथ बर्फ गिरनी शुरू हो गई| अब ठंडी हवा और बर्फ का डेड्ली कॉंबिनेशन अपने जलवे दिखाने लगा| वो दो पैरों के लिए बना पतला सा नया नवेला रास्ता अस्तित्व मे आते ही गायब होने लगा| पैरों के हटाते ही ताज़ी बर्फ़ीली हवा सारे सबूत मिटाने लगी| और इस बर्फ़ीली हवा के थपेड़े जब चहेरे पर पड़ते तो साँसों के साथ नज़रें भी लाचार होने लगी| इन सभी हालातों मे रुक के सुस्ताने का कोई मतलब नही था, वैसे भी वहां कोई रेन-शेल्टर या रेस्ट-हट्ज़ तो बने नहीं थे| बस किसी तरह अपने आप को आगे घसीटते रहना था| करीब करीब ६०० – ७०० लोगों मे अधिकतर लोग स्थानीय निवासी थे, कुछ कुल्लू और मंडी से सरकारी मुलाज़िम जिन्हे ड्यूटी पे पहुचना था. काफ़ी संख्या नेपालियों की थी जो हर साल नेपाल से यहाँ पर आ कर रोहतांग क्रॉस कर के घाटी मे ६० रुपय दिहाड़ी की मज़दूरी करते हैं| ये लोग अपने बोरिया बिस्तर के साथ चल पड़े थे| इन मे से कई लोग अपने परिवार के साथ थे| परिवार मे छोटे बच्चे भी थे| कुछ ५-६ साल के नाइलॉन के लाल जूतों मे नंगे पैर के साथ चल रहे थे, और कुछ दूध मुहे, पतली सी चादर के सहारे अपनी माओं की पीठ पे लटके हुए| अमूमन सारे बच्चे ठंड के मारे रो रहे थे| और जो नही रो रहे थे वो रोने की कगार पर थे| उन की माएँ थप्पड़ मार कर उन्हे चुप कर रही थी| लोकल महिलाएँ नेपाली माओं को झाड़ रहीं थी, “बच्चों को मारने लाई हैं क्या? उन्हे तो छोड़ के आतीं.”
पर अगर उन के पास छोड़ने का आप्शन होता तो शायद वो उन्हें साथ ही नही लाती|
इन सब मे एक और खास जोड़ा था. दो फिरंगियों का. अत्याधुनिक पोशाकों और उपकरणों से लैस, आँखों मे चौड़े गॉगल्स, और दोनो हाथों मे स्कीइंग स्टिक्स. गिरते पढ़ते चढ़ रहे थे| साँसें फूली हुई, चला नहीं जा रहा, नाक से पानी बह कर गले तक पहुच चुका था| कुल मिला कर कुत्ते जैसी हालत हो रखी थी| पर अड्वेंचर कर रहे थे| कोई ज़रूरत नहीं थी, आराम से मनाली मे मस्ती कर सकते थे| पर उन्हे भी रोहतांग क्रॉस करना था, नेपालियों को भी और लहौलियों को भी|
फ़र्क इतना था, किसी की ज़रूरत थी, किसी की मजबूरी, और कोई फन के लिए कर रहा था|
११:३० के आस पास, रोहतांग टॉप की आखरी चढ़ाई चढ़ रहे थे| हालत खराब थी, बैग में रखे 8 पराठे 8 क्विंटल जैसे लग रहे थे| अभी तक खाने का मौका नहीं मिला था| बैग उतार के फेंकने का मन कर रहा था| अच्छी बात ये थी की चढ़ाई ख़तम हो रही थी और मौसम भी ठीक हो रहा था| आख़िरकार बादलों का वो आखरी टुकड़ा भी हट गया| और आगे…. आगे जन्नत थी ,अलौकिक मनोहारी विहंगम दृश्य|शब्दों मे बयां करना रोहतांग की चढ़ाई जैसा ही मुश्किल है| अब आगे कोई चढ़ाई नहीं थी, अब बस उतरना था| पराठे खाए गये| सूर्यदेव ने बदन गरमा दिया था| थोड़ी देर आराम करने के बाद चल पड़े| प्लान ये था की कोकसर पहुँच कर थुपका मोमो खाया जाएगा और गाड़ी ले के चल पड़ेंगे| उतरने का काम आसान था, वो भी बर्फ पर, आधे से ज़्यादा रास्ता फिसल कर तय हो गया| अब आगे की कोई टेंशन नही थी| कोकसर मे थुपका-मोमो, वहाँ से गाड़ी और ३ घंटे मे घर| सब सेट था पर जैसे ही कोकसर पहुंचे, एक बुरी खबर हमारा इंतज़ार कर रही थी. सिसु(Sissu) के आस पास कहीं रोड खराब हो गया था| गाड़ियाँ वहाँ से आगे नही आईं|
सिसु तक १४ किलो मीटर और पैदल जाना पड़ेगा| थुपका-मोमो सब गले मे ही अटक गया| बुझे मन से सड़क की टूटी फूटी कोलतार पर पैर पटकते हुए चल पड़े| करीब चार बजे सिसु पहुचे, नाले मे लैंड-स्लाइड हुआ था, साथ मे सड़क भी ‘स्लाइड’ कर गई| वहाँ गाड़ियाँ खड़ी थी, पर भीड़ ज़्यादा थी, गाड़िया कम| फटाफट एक सूमो के फ्रंट सीट पर क़ब्ज़ा जमाया गया| ड्राइवर छत पर सामान चढ़ा रहा था, मेरा समान किसी और के बैग मे था| उतर के सामान अपने क़ब्ज़े मे लिया और वापस सीट की ओर आया, देखा एक भद्रपुरुष मेरी सीट पर विराजमान है| पूछने पर मुस्कुरा के बोले खाली थी तो बैठ गया| मेरे पास कोई सबूत नहीं था, ड्राइवर भी नहीं था अंदर, मैं चुपचाप डिक्की मे घुस के बैठ गया| वहाँ से तांदी पुल तक के सफ़र मे टूटी फूटी सड़क पर हिचकोले खाने से ज़्यादा इंट्रेस्टिंग कुछ हुआ नही| तो इस तरह सफ़र ख़तम हो गया|
ये सफ़र मेरे लिए तकलीफ़ दायक था, पर पहले के लोगों ने इस से भी भयानक यात्राएँ की हैं| लोग कोहरे मे खो के भटके हैं, लोगों को चलते चलते जमते हुए भी देखा है|
रोहतांग टनल की मांग कई दशकों से की गई थी, पर क़बायलियों की आवाज़ किसी ने नही सुनी| भला हो उन पाकिस्तानियों का जिन्हो ने १९९९ मे कारगिल पर अतिक्रमण किया और हिन्दुस्तानी सरकार को मनाली-लेह हाइवे के सामरिक महत्व का पता चला | फटाफट टनल की घोषणा की गई और आज की डेट मे रोहतांग के सीने मे परमानेंट सुराख बनाया जा रहा है| देखो कब बनता है, हमारे यहाँ वैसे भी कबायलियों की आवाज़ देर से ही सुनाई देती है सरकार को, दूर से आती है ना, कई बार बर्फ में ही दबी रह जाती है |
फिर शायद ऐसे अनुभव किस्से कहानियों मे ही पाए जाएँगे|
P.S. मढ़ी से कोकसर(३७.२ किलोमीटर), एक बार फिर जाना हुआ था| पदयात्रा एक बार फिर |
]]>इस सबके बीच आपको सब जगह, चाहे लोअर बाजार, कार्ट रोड, या हाई कोर्ट, कश्मीरी ख़ान दिखेंगें, किसी की पीठ पे २०-२५ पेटियाँ होंगी, तो किसी की पीठ पे अलमारी, किसी के पाँव में रस्सी बँधी होगी ताकि बर्फ में चलने में आसानी हो, तो किसी के सर घुटनों तक पहुँच गया होगा, बोझे के भार की अधिकता से| जिस बर्फ में खाली हाथ चलने में परेशानी हो जाती है, अपना वजन तक नहीं संभलता, उसी बर्फ में ये लोग १००-५० किलो बड़े आराम से उठा के चलते हैं| बर्फ में पाँव पे रस्सी बाँध के जब ये लोग चलते हैं तो इनका “बॉडी बेलेन्स” देखने लायक होता है| सुबह होते ही ये दूध से भरे हुए कनस्तर उठाके जाखू मंदिर की ओर कूच कर देते हैं, और बिल्कुल सही वक़्त पे|ऐसे ही नहीं इन्हें पहाड़ी ऊँट कहा जाता|
जब मैने एक कश्मीरी ख़ान से बात करने की कोशिश की तो सबसे पहले उसने मुझे चाय के लिए पूछा, मुझे लगा की वो चाय पीना चाहता है पर वो मुझे चाय की ऑफर दे रहा था| अधिकतर कश्मीरी ख़ान अनंतनाग और उसके आस पास के इलाक़े से शिमला आते हैं, कुछ को यहाँ रहते हुए ३५-४० साल हो चुके हैं, तो कुछ सिर्फ़ सोलह-सत्रह साल के लड़के हैं, जो देखने में आप और मुझसे भी कमजोर दिखेंगे लेकिन बोझा उठाने में “द ग्रेट खली” से भी मजबूत| शिमला में बिना ख़ान के जीवन-यापन काफ़ी मुश्किल है, चाहे वो फिर लोअर बाजार में सब्जी पहुँचने का काम हो या फिर माल रोड पे “आइस-क्रीम” की पेटियाँ पहुँचाने काम हो या फिर “त्रिशूल बकेरी” में पेस्ट्री पहुँचने का काम हो|
रज्जाक, यासिर, अहमद, सब एक ही गाँव से हैं और पिछले १५ सालों से शिमला में रहते हैं| उन्होने इस शहर को बड़ी नज़दीकी से देखा है और अनंतनाग से ज़्यादा जानकारी उन्हें शिमला के बारे में है| उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें उनके नाम से बुलाते हैं| वैसे तो सबको ख़ान ही कहा जाता है और उन्हें बुरा नहीं लगता पर अगर किसिको नाम से बुलाया जाए तो वो कहावत सिद्ध हो जाती है जो कभी मैने ट्रक के पीछे पढ़ी थी, “प्यार से बात करो इज़्ज़त मुफ़त मिलेगी”| ख़ान पहले सिर्फ़ बोझा ढोते थे पर अब कुछ स्मार्ट ख़ान टूरिस्ट गाइड बन गये हैं, जो बस अड्डे और “१०३ टॅनल” पे सवारियों को धर दबोचते हैं, होटेल और “टूरिस्ट पॅकेजस” के लिए|
थोडा नीचे आने पे जन्जेहली (Janjehli Valley) में एक भीम शिला है जो नाम कि तरह भीमकाय है लेकिन हाथ कि सबसे छोटी ऊँगली से हिलाने पे हिल जाती है | हिमाचल का सबसे प्रसिद्द पास, रोहतांग पास भी देवता कि तरह पूजा जाता है | कहते हैं रोहतांग पास का मतलब है रूहों का घर , यहाँ सबसे ज्यादा मौतें होती हैं सैलानियों कि, क्यूंकि यहाँ मौसम किसी भी पल बदल जाता है | हर साल रोहतांग (Rohtang Pass) खुलने से पहले देव रोहतांग कि पूजा होती है ताकि कोई त्रासदी न हो और इसी पूजा से बोर्डर रोड ओर्गनाइज़ेशन के जवानों को भरोसा आता है माइनस २० डिग्री में काम करने का|
बात करते हैं कुल्लू जिला कि, कुल्लू हिमाचल का सबसे रहस्यमयी जिला है| यहाँ ऐसी ऐसी कहानियां, मंदिर, इमारतें मौजूद हैं कि बस आप कहानियां ही सुनते रह जाओगे| यहाँ कुल्लू का दुशहरा होता है जिसे अंतर्राष्ट्रीय दर्ज़ा मिला हुआ है, मेले कि ख़ास बात ये है कि जब तक देव रघुनाथ ना आ जाए, ये मेला नहीं शुरू होता| वैसा ही मंडी की शिवरात्रि में हैं की जब तक देव कमरुनाग नहीं आएगा, मेला नहीं शुरू होगा|
कुल्लू जिला में जात पात का भी बहुत लफड़ा है| किसी किसी गाँव में अनुसूचित जाति वाले लोगों को गाँव में नहीं घुसने दिया जाता, कहीं कहीं गाँव में तो जा सकते हैं पर घरों में नहीं जा सकते| मंडी जिले के कुछ गाँव जो कुल्लू जिले से लगते हैं, वहां भी जात पात का प्रचलन बहुत ज्यादा है| कोई चमार जाति का इन्सान हो, पहले तो ये समझा जाए की चमार कौन है? चमार वो है जो चमड़े का काम करे (चम/चर्म = skin), अब पुराने ज़माने में जब चमड़े से काम करते थे तो हाथ गंदे होंगे क्यूंकि टेक्नोलोजी नहीं थी, मशीन नहीं थी, और ऊपर से गरीबी| तो अनुसूचित आदमी मंदिर में नहीं घुसेगा | कुल्लू के बहुत से गाँवों में जात पूछी जाती है बात शुरू करने से पहले और वहां बहुत से गाँव ऐसे हैं जो एक्स्क्लुसिवली राजपूतों या ब्राह्मणों के हैं और वहां अनुसूचित जाती के लोग जा ही नहीं सकते | लेकिन अब जब रहन सहन काफी हद तक बदल गया है तो ये रीति रिवाज़ भी बदल जाने चाहिए|
वैसे ही महिलाओं के मंदिर में प्रवेश वर्जित होते हैं माहवारी (Periods) के दौरान, लेकिन आज जब ये टेक्नोलोजी भी बदल चुकी है, सफाई रखने के कई बेहतर और आसान तरीके मौजूद हैं, तो ये रिवाज भी अब ज्यादा मायने नहीं रखता है| पुराने रीति रिवाज़ तब तक वैलिड थे जब तक आसान तरीका नहीं था| एक तरीका नीचे देखें|
कुल्लू के लघ घाटी में एक गाँव है सेओल, वहां एक जंगल है जिसके पेड़ कम से कम सौ साल पुराने हैं, ये सारा जंगल देवता का है और एक पत्ता भी वहां तोड़ना मना है उस जंगल से| पकड़े जाने पे मंदिर में पेशी लगती है और जुर्माना अलग| अब सोचा जाए तो सौ साल पुराने जंगल को बचाने के लिए कोई कहानी तो बनानी ही पड़ेगी, तो देवता का नाम दे दो और फिर कोई कुछ नहीं करेगा| बिना चालान होने के डर के लोग हेलमेट नहीं पहनते तो जंगल को तो बिना डर के लोग तहस नहस कर देंगे, तो इसलिए देवता का नाम जरुरी है इतने पुराने जंगल को बचाने के लिए| कई गाँवों में देवता के नाम पे हेरिटेज कंजर्व भी हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं |
यहाँ से चले जाएँ किन्नौर कि और तो वहां भी यही कहानी है, देवी देवता की | एक जगह है तरंडा ढांक (Taranda Temple) , ढांक पहाड़ी में खाई को कहते हैं| शिमला से किन्नौर में घुसते ही तरंडा ढांक आती है, एकदम सौ-दो सौ फीट खड़ी पहाड़ी और नीचे उफनती हुई सतलुज नदी, गिरने पर बचने का कोई स्कोप नहीं| तो तरंडा मंदिर के पास आने जाने वाले हर एक गाडी रूकती है, जो नहीं रुकता वो सतलुज में समा जाता है, ऐसा लोगों का मानना है| जिन लोगों को इस बारे नहीं पता होता वो लोग दैवीय प्रकोप से बच जाते हैं, पर जो जान बूझ के न रुके, वो नदी में समा जाता है, ऐसा माना जाता है, किन्नौर में इस मंदिर की बड़ी मान्यता है | बात सही भी है, किन्नौर कि सडकें हैं तो चौड़ी पर अगर गिर गए तो मौत निश्चित है, इसलिए तरंडा ढांक का डर/भरोसा आदमी कि जान बचाने में काफी कारगर साबित होता है|
ऐसा ही स्पीति में कुंजुम पास में होता है, एक मंदिर है कुंजुम टॉप (Kunjum Pass) पे, वहां आने जाने वाली हर गाडी रूकती है, यहाँ तक की अँगरेज़ भी, नहीं तो कुंजुम की घुमावदार सडकें लील लेती हैं इंसान को| ऐसा ही मंडी से मनाली जाते हुए हणोगी माता के मंदिर में होता है , जो रुका नहीं वो रुकता भी नहीं सीधा ऊपर पहुँच जाता है, ऐसा माना जाता है |
यहाँ सतलुज और स्पीती नदियों को भी देवी कि तरह पूजा जाता है | यहाँ पहाड़ों की पूजा होती है | यहाँ पत्थर, मिट्टी, जंगल सब की पूजा होती है| जितने भी ऊँचे ऊँचे पहाड़ है, पास है, टूरिस्ट प्लेसेस हैं सब जगह आपको मंदिर जरुर मिलेगा| और कई जगह तो सिर्फ मंदिर होने कि वजह से टूरिस्ट प्लेस बन गया है |
मेरे ख्याल से यहाँ पूजा करते हैं प्रकृति कि, कहीं नदी कि, कहीं पानी कि, कहीं बर्फ कि, कहीं पत्थर कि क्यूंकि हमें मालूम है कि सब प्रकृति के अधीन है, प्रकृति एक ऐसी रहस्यमयी रचना है कि जिसे बूझ पाना अभी तक मुनासिब नहीं है, पहाड़ों में तो बिलकुल भी नहीं, तो सबसे अच्छा तरीका यही है कि भरोसा रखो, और काम किये जाओ| बस ये भरोसा अन्धविश्वास नहीं बनना चाहिए |
कहाँ से ये कहानियां जन्मी, ये घटनाएं सच में हुई या नहीं, किसीने देखा या दिमाग का फितूर है, इस सब पे गौर ना करें तो हम देखेंगे कि पहाड़ों में प्रकृति पे भरोसा करना बहुत जरुरी है, ऊंचाई पे बसे घर, पहाड़, बादल, बर्फ, नदी, नाले, कुछ भी, कभी भी विपदा ला सकता है, और कई कई सालों सिर्फ भरोसे के दम पे इंसान ने काफी कुछ कर दिखाया है| कुंजुम, रोहतांग पास की सडकें, किन्नौर का मौसम, कुल्लू के बादल, इन सबका कोई भरोसा नहीं है| कोई भी इन्सान हो, उसे हिम्मत , विश्वास होना बड़ा जरुरी है इन जगहों पे की कुछ गलत नहीं होगा, और शायद इसलिए ही ये मंदिर बने , ये रुकने – रोकने की प्रथाएं चली, की देवता ने आशीर्वाद दे दिया है, अब कुछ गलत नहीं होगा, ये एक भरोसा पैदा करने की टेक्निक थी जो धीरे धीरे अंधविश्वास बन गया|
लेकिन ये सब जरुरी भी है और नहीं भी|
वक़्त के बदलने के साथ रीति रिवाज़ भी बदलने जरुरी हैं क्यूंकि रीति रिवाज़ एक लिमिटेड समय तक ही वैलिड रहते हैं उसके बाद अन्धविश्वास बन जाते हैं| जात पात, देवता का श्राप, देवता की नाराजगी ये सब बातें गौर करने लायक हैं की अब जब हमारे रहने , खाने, पीने, और जीने में काफी हद तक बदलाव आ गया है, क्या जरुरी नहीं है की अब इनपे निर्भरता कुछ हद तक कम की जाए?
देवता के आदेश से कई बार सुपर अड्वेंचर भी हो जाता है, यकीन नहीं आता तो ये देखिये, भुंडा महायज्ञ [Read More About Bhunda Story] का एक विडिओ जोकि २००६ में शिमला के रोहडू में आयोजित हुआ था|
P.S: One of my friends has done her research work in the aforementioned regions during her Masters and she has experienced most of these things herself. She has worked in the remotest villages of Kullu Valley, Malana Village, Kinnaur, Upper Mandi, and Old Manali Town. Her research has revealed many astonishing facts about the upper reaches of Himachal Pradesh.
हमीरपुर का नाम रखा गया था राजा हमीर के नाम के नाम पर , और राजा होगा तो किला भी होना चाहिए| काफी खोज बीन के बाद किले का पता चला तो हम निकल पड़े कैमरा और मोटर-साईकिल उठा के | किला संसार चंद कि रियासत का किला था जिनका सबसे प्रसिद्द किला काँगड़ा में है| जगह का नाम तो राजा हमीर के नाम पर है लेकिन जो महल का किला है उसे संसार चंद -II ने बनवाया है, 1775 -1823 के आस पास | किले तक पहुंचना आसान काम नहीं है, क्यूंकि सड़कों का जो जाल है हमीरपुर में, वो बस किले कि तरफ नहीं जाता, बाकी तो सड़कों कि भूल भुलैयां है ये जगह| बड़े शहरों में गुम होना तो आपने सुना होगा, यहाँ हमीरपुर में भी गुम होने के बड़े किस्से हैं, हर मोड़ पे लिंक रोड है, इधर से घुसो उधर निकल जाओ, हर तरफ सड़कें ही सडकें, ग्रोथ से कभी कभी परेशानी भी हो जाती है|
खैर, किले तक पहुँचने के लिए मेन रोड छोड़ के अन्दर जंगलों में जाना पड़ता है, और सड़क से किला दिखता भी नहीं है | गाँव के बीच से एक छोटी सी (कुनाह) खड्ड है जो आपको किले तक ले जाती है, आस पास इक्का-दुक्का घर हैं और जंगल ठीक ठीक बड़ा है | साथ ही में एक पांडव शैली में निर्मित एक मंदिर है, कितना पुराना है कुछ कहा नहीं जा सकता| खड्ड पार करते ही सामने भगवान का द्वार दिख जाता है, भगवान का द्वार माने शमशान घाट, गाँव के लोगों कि मानें तो ऐसा “शानदार” शमशान घाट पूरे राज्य में कहीं नहीं मिलेगा| वैसे मेरे ख्याल से सुंदरनगर, मेरे गृह नगर का शमशान घाट बड़ा शानदार है, एकदम झील के किनारे, ठंडी हवा चलती है आग से गर्मी भी नहीं लगती लोगों को|
फिर जब राज ख़तम हो गए, राजाओं के भी और ब्रिटिश राज भी, तब यहाँ लोगों ने आना जाना शुरू किया, कभी घास के लिए तो कभी सोने के लिए| किले में कहा जाता है अथाह सोना दबा हुआ है मलबे के नीचे , जिसको निकालने के लिए लोग जाते है कुल्हाड़ी-फावड़ा लेके, लेकिन कभी गाँव के लोग पीट के वापिस भेज देते हैं तो कभी पोलिस आके धुलाई कर देती है, सोना है या नहीं , ये कहना मुश्किल है पर रहस्य पूरा रामसे ब्रदर्ज कि फिल्मों वाला है|
महल मोरियां जो कि इस किले का आफिशियल नाम है, इस किले में दो लड़ाईयाँ हुईं थीं, लड़ाई नहीं दो भीषण युद्ध| पहली बार तो गुरखों को राजा संसार चंद कि सेना ने मार भगाया लेकिन दूसरी बार की हार राजा जी के गले कि आफत बन गयी, राज पाट सब छूट गया इतनी करारी हार का सामना करना पड़ा राजाजी को| राजा संसार चंद का काँगड़ा किला (पढ़िए – मुसाफिर हूँ यारों पे) भी इस लड़ाई के चक्कर में गुरखों के हाथ लग गया, मुझे लगता है ये गुरखा राजा वही “अमर सिंह थापा जी ” है जिनका किला जलोड़ी पास में है (रघुपुर किला -जलोड़ी पास, पढ़िए)|
संसार चंद – II ने सुंदरनगर/मंडी के राजा इश्वर सेन को बंदी बनाके रखा था और गुरखे उनको भी छुड़ा ले गए अपने साथ| इश्वर सेन को संसार चंद ने बारह साल तक नादौन के अमतर (पढ़िए अमतर की कहानी) स्थित किले में बंदी बना के रखा, आठ साल और होते तो वीर-ज़ारा बन जाती| गाँव वालों कि बातों और किंवदंतियों पे गौर फरमायें तो पता चलता है कि महल मोरियां का किला पूरे छह महीने तक जलता रहा, इतनी आग में सोना बचा होगा, ये कह पाना जरा मुश्किल लगता है| मंडी की महाशिवरात्रि का भी इस किले से गहरा सम्बन्ध है|
राजा का वजीर एक मुसलमान था और आज भी उसके वंशज इस गाँव में रहते हैं| सबसे हैरानी कि बात ये है कि इस गाँव में एक भी राजपूत नहीं है, मतलब कि जब आग लगी और मार पड़ी, तो राजा जी अपनी सारी बिरादरी को साथ ले गए| वहीँ पास में एक गाँव है ताल, ताल और महल का नाम एक साथ लिया जाता है, जैसे कि हारसिपत्तन (पढ़िए रहस्यमयी नगरियाँ), ताल दो कारणों से फेमस है, एक वहां एक ताल (जलाशय) हुआ करता था जहाँ राजा के घोड़े बंधा करते थे| और दूसरा रूमी वैद, कहते हैं उसके हाथों में जादू था, हड्डी कैसे भी, कहीं कि भी, कितने भी एंगल पे टूटी हो, रूमी वैद उसको ठीक करने कि कुव्वत रखता था| पूरे हिमाचल में सिक्का चलता था रूमी वैद का, जो हमीरपुर में पले बढे हैं, २००० से पहले कि जेनेरेशन , उन सबने इन भाई साहब का नाम सुना है| अब शायद अल्लाह को प्यारे हो गए हैं, पर मैंने उनके जितना किसी और का नाम नहीं सुना है , उनसे ऊपर शायद डाक्टर बंगाली ही होंगे , नो डिस-रिस्पेक्ट |
जंगलात महकमे के लोगों कि ड्यूटी लगती है उधर, ताकि लोग लकड़ी, घास न ले जाएँ सरकारी जमीन से, बस किले को बचाने के लिए कोई नहीं आता शायद, मुझे ये नहीं समझ आता कि मुझे किले देख के ख़ुशी होनी चाहिए या दुःख? किले बनवाए जाते थे लोगों से, बिना मशीनरी के, किले तक पैदल चढ़ने में हवा निकल जाती है, तो जो मजदूर सामान लेके जाता था ऊपर, पत्थर, लकड़ी, पालकियां, उनका तो आधा जन्म ही ढुलाई में निकल जाता होगा, साला अजीब ही हिसाब किताब है जिंदगी का, किसी न किसी को तो मजदूरी करनी ही पड़ती है, चाहे राजतन्त्र हो या प्रजातंत्र|
हमारी सभ्यता, इंजिनीयरिंग के प्रतीक हैं ये किले या बेवकूफी के, मैं कुछ समझ नहीं पाया हूँ इस बात को|
रजवाड़े ख़तम हो गए. किले टूट गए सारे पर मजदूर आज भी मजदूर ही हैं , तब भी पत्थर ढ़ोते थे, अब भी पत्थर ढोते हैं|
]]>अ) लड़की पटाने में सुविधा होती है, लड़की को रोज सीट दिलवा दो तो लड़की पटने के चांसेज बढ़ जाते हैं
ब) कंडक्टर से दोस्ती हो जाती है, कंडक्टर गाँवों/छोटे शहरों में बहुत काम की चीज़ होती है
स) किराया नहीं लगता
फिर पूरे एक घंटे खड़े रहने के बाद और “अगम कुमार निगम” के दर्द भरे गीत सुनने के बाद बस में जान आई, सवारियों को ज्यादा फरक नहीं पड़ा, पर मेरी रुकी हुई धड़कन एक बार फिर चल पड़ी, बस थोड़ी देर और रुकी रहती तो मैं १२ किलोमीटर कि यात्रा पैदल ही तय कर लेता | कंडक्टर ने १०-२० लोगों को छत का रुख करने को कहा और खुद गुटका चबाता हुआ [राह चलते] लोगों से गप्पें मारता हुआ बस को चलने का आदेश दिया | रविवार के दिन बसें कम होती हैं, और सवारियां इकठी हो हो के अथाह हो आती हैं, तो बस के अन्दर पूरा कुम्भ का मेला लगा हुआ था, और मेरे बगल में बैठी हुई आंटी मजे से मूंगफली खा रही थी और छिलके बस में ही फेंक रही थी , एकदम आराम से, भीड़ भड़क्के से कोई फरक नहीं पड़ा उसको| मूंगफली मुहं में और छिलका बस के अन्दर, एकदम अचूक निशाना |
खैर बस चली, धीरे धीरे, मेरी परेशानी का लेवल बढ़ता चला गया और सवारियां उतरती चढ़ती चली गयीं, पांच उतरती थी, दस चढ़ती थी, भीड़ ख़तम होने का नाम नहीं लेती थी| पूरी बस में मुझे छोड़ के कोई भी विचलित नहीं था बस की देरी को लेकर के, उनके लिए रोज का काम था, उनके लिए इन्तेजार करना ही जीवन है और मेरे लिए तेज़ भागना, जल्दी जल्दी, सब कुछ जल्दी चाहिए, बस एकदम से| वहां जिंदगी बहुत धीमे से चलती है गाँव में| धीरे धीरे गाँव बदल रहे हैं, जमीन है पर खेती नहीं है क्यूकी अब खेती नहीं कोई करना चाहता, कुछ आई.आई.एम् और आई.आई.टी वाले कहते हैं कि खेती करेंगे पढ़ लिख के पर बाकी सबको शेहेर जाना है| मेरा एक दोस्त है आई.आई.एम् लखनऊ का , कहता है गाय पालेगा, खेती करेगा, भाई अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है, खेती नहीं करेगा तो शेहेर वाले तो कहीं के नहीं रहेंगे, अब पहाड़ों में हरियाली न रही तो काहे के पहाड़? पूरे डेढ़ घंटा गाँव गाँव में घूमने के बाद मैंने पांच किलोमीटर का सफ़र तय किया, अब मैं भी एक गाँव वाला हो चुका था, कोई जल्दी नहीं, कम से कम एक बस तो है , पैदल चलने से तो वही अच्छा है, यही संतुष्टि का भाव लिए उतर गया मैं |
मैं भी एक गाँव में ही रहता हूँ सुंदरनगर में , आप भी एक गाँव से ही आये हैं, आज दिल्ली, मुंबई, गुडगाँव में हैं, पर घर आपका भी गाँव में ही है, एक छोटा सा गाँव, जहाँ आज भी वही मिनी बस चलती है, कम सीटें और ज्यादा सवारी के साथ| वहां बसों का इन्तेजार करना एक जरुरत है , आएगी तो आएगी नहीं तो पैदल चलो| मंडी, काँगड़ा, हमीरपुर, सोलन, कुल्लू, शिमला, सब जगह यही मिनिबस चलती है, वही पीला रंग, वही शेर-ओ-शायरी , वही दिलजले ड्राइवर, और वही घिसे-पिटे से रूट |
पर कभी घर आओ “एक हफ्ते” कि छुट्टी पे तो बैठना इस मिनिबस में, मजा आएगा |
]]>डाडासीबा एक छोटा सा गाँव है काँगड़ा डिस्ट्रिक्ट में, और वहां के बाशिंदे कहते हैं कि पूरी दुनिया डेवेलप हो जाएगी, पर डाडासीबा का कुछ नहीं हो सकता, देख के तो यही लगा कि सच ही कहते हैं | डाडासीबा पहुंचना हो तो जवालाजी से निकल जाओ देहरा कि तरफ और वहां से तलवाड़ा रोड पे निकल लो, किसी भी माईल स्टोन पे डाडासीबा नहीं लिखा होगा, पर घबराने कि जरुरत नहीं है सीधी सड़क है, चलते जाओ, डाडासीबा जब आएगा तो पता चल जाएगा | जब ये बता पाना मुश्किल हो जाए कि सड़क में खड्ड आ गयी या खड्ड में सड़क बना दी गयी है , तो समझ लो कि डाडासीबा आ गया | पर कुछ अच्छा पाना हो तो कष्ट भोगने ही पड़ते हैं, तो जैसे ही डाडासीबा पहुँचो आपको दिखता है महाराजा रणजीत सागर डैम, जिसके ऊपर पौंग डैम बना हुआ है | जिन लोगों ने मुंबई देखा हुआ है उनको लगता है कि मुंबई का बीच आ गया और जिन्होंने नहीं देखा हो, उनको लगता है कि मुंबई ऐसा ही होगा|
दूर दूर तक देख लो, पानी ही दिखेगा, जमीन नहीं दिखती, आसमान और जमीन में फरक नहीं दिखता| हम जब पहुंचे तो सूरज ढल चुका था, पानी सुनहरे रंग का हो चुका था और दूर पानी में मछली पकड़ने वाला जाल फेंक और खींच रहा था | मेरे ज़हन में सिर्फ एक आवाज़ गूँज रही थी ” डा डा सिबा ” | जगह का नाम और आँखों के सामने का नजारा बिलकुल राज कॉमिक्स कि कहानियों का कोई गाँव लग रहा था | वहां कैम्पिंग और बोन-फायर करने का बड़ा आनंद आएगा , मछली पकड़ने की कला आती हो तो वहीँ पकड़ो, भूनो और ओल्ड मोंक के साथ खा जाओ|
डाडासीबा से निकले हम एक और बचपन कि याद को ताज़ा करने, आशापुरी मंदिर, वहां से कहते हैं किस्मत वाले दिन सारा हमीरपुर, बिलासपुर, और रंजित सागर दिखता है, पर अपनी किस्मत हमेशा अगले कल ही आती है सो वैसा ही उस दिन हुआ | दिन दोपहर में पहुँच गए आशापुरी लेकिन आसमान में बादल थे तो कुछ नहीं दिखाई दिया, बस ब्यास नदी दिख रही थी पहाड़ियों को काटती हुई | आशापुरी का मंदिर पहाड़ी कि चोटी पे है और ये मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कि प्रोपर्टी है | सुनिए इस मंदिर कि कुछ विशेषताएं :
कहते हैं ये मंदिर बैजनाथ के प्रसिद्द शिव मंदिर के साथ का बना हुआ है | यहाँ रहने के लिए कोई सराय/धरमशाला नहीं है लेकिन वहां लोगों कि दुकानों में रहा जा सकता है | दूर दूर से लोग आते हैं यहाँ क्यूंकि यहाँ काफी लोगों कि कुलदेवी है, शिमला, नालागढ़, बरोटीवाला, सोलन, ये कुलदेवी सेलेक्ट कैसे होती है ये नहीं पता पर पहुँच बड़ी है इस मंदिर की| अन्दर किसी ब्रिटिश महाराजा के दो सिक्के (coins) गड़े हुए हैं, पुजारी परिवार की मानें तो अंग्रेजों ने इस मंदिर में स्वयम्भू पिंडी को तोड़ने के लिए सिपाही भेजे, सिपाहियों ने भरपूर जोर आजमाइश की लेकिन पिंडी नहीं उखड़ी, हाँ पिंडी के नीचे से मधुमखियाँ निकली, जिन्होंने सैनिकों को मार भगाया | फिर तबसे ब्रिटिश लोग भी मंदिर की महिमा को मानने लगे, कितना सच-कितना झूठ इसपे गौर न करें तो स्टोरी काफी इंटरेस्टिंग है | समय के साथ ये मंदिर विखंडित होने लग पड़ा और रही सही कसर पुरातत्व विभाग ने पूरी कर दी, मंदिर की नक्काशी की हुई छत पे कंक्रीट चढ़ा दिया गया है और अब ये मंदिर पुराना कम और कम पैसे लेके घटिया ठेकेदार से बनवाया हुआ ज्यादा लगता है |
वहां पहुँच के मेरे दिल को बड़ा सुकून मिला, और मेरे दोस्त के हिसाब से वहां कोई प्राचीन मंदिर जरुर होगा क्यूंकि वहां से एक बस चलती है कटड़ा (जम्मू) के लिए, कहने का मतलब ये है कि जिन छोटे छोटे गाँवों से जम्मू-कटड़ा-वैष्णो देवी के लिए बसें चलती हैं, वहां एक सौ प्रतिशत या तो कोई मंदिर होता है, ये रिलीजियस सिग्निफिकेंस होता है, खैर अँधेरा हो चुका था तो मंदिर तो हम नहीं ढूंढ पाए , और कैमरा की बेट्री भी जीरो हो चुकी थी तो न पुल का फोटो खींच पाए और न ही जगहों का, पर यकीन मानिये जब ब्यास का बेसिन दीखता है और ढलता सूरज पूरे आसमान को सुनहरा बना देता है तो ऐसा लगता है जैसे अलिफ़ लैला की कहानियों का कोई गाँव है|
P.S: तीसरा रूट है घोडिध्वीरी-दिल्ली, जगह का नाम सुनके लगता है मुग़लों की सल्तनत का कोई गाँव हो, जगह का पता चलते ही वहां भी जाया जाएगा |
]]>किराया कंडक्टर ने पूरा वसूला, चार पूरी सवारी का और आठ आधी सवारी का | फिर धीरे धीरे बस में भीड़ बढ़ने लगी, पढ़े लिखे [जैसे दिखने वाले] लोग चढ़ने लगे, डियो लगाके लौंडे-लौंडियाँ भी चढ़े, सबने उन मजदूरों को देख के शकल बना ली, और बस के एक कोने में इक्कठे हो गए, मजदूरों से ठीक दूर | एक एवियटर चश्मा लगाये हुए भाईसाहब भी चढ़े, उन्होंने तो चढ़ते ही गाली गलौज शुरू कर दी और मर्द मजदूरों को उठा के जीन पेंट पहनी हुई लड़कियों को बैठने की पेशकश दे दी, ये बात और है की उन सीटों पे दो बूढी अम्माएं एकदम से काबिज़ हो गयी, पलक झपकते ही जैसे घात लगाये हुए बैठी हों |
पूरे रास्ते लोग पहाड़ी [भाषा] में उन भईय्यों को, उनके बच्चों को, और यहाँ तक की उनकी पूरी कौम को गाली देते रहे | गंदे भईये, अनपढ़ भईये, चोर भईये, इत्यादी इत्यादी | फिर एवियटर वाले भाईसाहब को एक फोन आया, ठेकेदारी का काम था उसको, उसको कुछ भईये चाहिए थे अपनी साईट पे, वहीँ उसने उसी आदमी से बात की जिसको उसने सीट से उठाया था, और डील फिक्स हो गयी| कंडक्टर को कह दिया गया की किस जगह उन भईय्यों को उतरना है |
मैं सोच में पड़ गया की आपका घर बनाये भईया, सड़क बनाये भईया, पत्थर तोड़े भईया, कपडा बुने भईया, गटर खोदे भईया, शादियों में स्टेज सजाये भईया, रिक्शा चलाये भईया, पान खिलाये- बीडी पिलाये भईया, यहाँ तक की भगवान की मूर्तियाँ तक बनाये भईया, पर बस में सीट मत दो उसको | क्यूंकि साला भईया है | पढ़े लिखे, इंजिनियर , डाक्टर और MBA लोग भी भईये को भईया ही मानते हैं क्यूंकि वो बिना पढ़े लिखे, बिना किसी स्किल सेट के कोई भी काम कर लेता है, मूर्ती बनवा लो, फ़ौंडेशन खुदवा लो मकान की, फर्नीचर बनवा लो, कपडे सिल्वा लो, भईया सब करेगा| न उसको अकड़ है डिग्री की और न ही कोई ईगो, उसको बस रोटी चाहिए खाने को |
मैंने सुना की जबसे नितीश कुमार ने अपना भाइयों को वापिस अपने “देश” बुला लिया है, तबसे हिमाचल, पंजाब , हरयाणा, और जम्मू में कई लोगों की हवा टाईट हो गयी है, ठेकेदारों को मजदूर नहीं मिलते, फैक्ट्री में लेबर नहीं मिलती, भईये जा रहे हैं अपने देश, आप बैठो अपनी बसों में चौड़े होके | घरों में लोग खुद ही ईंट समींट और सरिया ढ़ो रहे हैं क्यूंकि भईया चला गया अपने देश |
मैंने एक हिसाब लगाया है की जब तक आप अपने घर से, अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर नहीं निकलते, आप दूसरी विचारधारा का सम्मान ही नहीं कर सकते | उस कंडक्टर की कुछ खास गलती नहीं लगती मुझे, उसको हमीरपुर – जाहू रूट पे चलना है सारी उम्र, उसको नहीं पता की भईया ऐसा क्यूँ है, काला, बदबूदार, और अजीब सा| लेकिन जिस दिन वो बाहर निकलेगा, दिल्ली में रहेगा, बंगलौर में डोसे खाएगा तीन टाइम , ऑटो वालों से दिमाग लगाएगा दिल्ली में, और मुंबई में मराठी माणूस से भिड़ेगा, तब उसे पता चलेगा की साला भईया भी रिस्पेक्ट ड़ीसेर्व करता था [है] |
बचपन में हम इन्हें बागडिया कहते थे, मतलब अभी पता लगा है कुछ महीने पहले की बागड़ी एक झोंपड़ी को कहते हैं और जो उसमें रहे वो बागडिया कहलाता है, हमें बचपन में लगता था की ये सब चोर होते हैं, क्यूकि एक बार कोई गटर का ढक्कन चुराते हुए पकड़ा गया था कबाड़ी को बेचते हुए, उसको सारे मोहल्ले वालों ने खूब धोया, तबसे मुझे यही लगता था की ये सब चोर हैं, पर बचपन में ही अक्ल आ गयी वक़्त के साथ|
एक भाईसाहब थे, खगेश्वर नाम था उनका, उनके साथ खूब क्रिकेट खेला मैंने छठी क्लास तक , झोंपड़ी में रहता था वो , रणजी खेली थी उसने शायद हिमाचल की तरफ से, तब मुझे समझ आई की सब भईये चोर नहीं होते |
सबको अपने अपने वक़्त से अक्ल आती है, किसी को जल्दी, किसी को देर से|
आपको आ गयी?
]]>पड़ोस की बूढ़ी अम्मा बाहर दरवाजे पे खड़ी थी, यश के चेहरे पे खीझ देख के उसे सारा माजरा समझ आ गया, हाथ पकड़ के वो यश की माँ को अन्दर ले गयी|
वो बूढ़ी अम्मा उनके घर के बगल में रहती थी, कोई बीस साल से , और वो एक खुशहाल घर को नरक में तबदील होते देख रही थी| जबसे यश की शादी हुई थी , यश की माँ को यश के बर्ताव में कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था| सुबह की चाय यश बनाता था, रात को भी किचन में खड़ा मिलता था | बस इसी सब से यश की माँ को दिक्कत थी, की शादी के पहले तो कभी लड़के से काम नहीं करवाया, अब जब शादी हो गयी तो लड़का एकदम से घरेलू हो गया है, ये सोच सोच के उसका खून जलता रहता था, रही सही कसर पड़ोस की औरतें पूरी कर दिया करतीं थीं|
उस बूढ़ी अम्मा को काफी पहले ही ये आभास हो गया था की जो अब हो रहा था इस घर में उसे पूरा यकीन था की एक दिन ये जरुर होगा | इस घर में उसने अजीब सा हिसाब देखा था और उसने उम्मीद नहीं की थी की पढ़े लिखे लोगों के घर में ऐसा होता होगा | बच्चे स्कूल से आयेंगे तो लड़का कपड़े दरवाजे पे ही खोल देगे, खाना खाएगा तो माँ जूठी प्लेट तक उठा के किचन में रखेगी | लड़की को पूरा सलीका सिखाया था उन्होंने , खाना बनाना , कपड़े धोना, बर्तन धोना | कोई मेहमान आये घर में तो पानी पिलाने से लेकर खाना बनाने का सारी ड्यूटी लड़की की थी, ऑटोमेटिक मोड में बिना किसीके कुछ भी कहे | लड़का बैठता था भरी महफ़िल में, उसके गुणगान किये जाते थे, पढने में अच्छा था, पढने में तो लड़की भी ठीक थी, पर लड़कियों के टैलेंट को तौलने का पैमाना हमेशा से ही अलग रहा है |
बूढ़ी अम्मा समझाती भी थी की लड़के को भी काम सिखाओ, अब ज़माना बदल गया है, लड़की अगर बाहर का काम करती है तो लड़के को भी घर का काम आना चाहिए, और कम से कम खुद का काम तो आना ही चाहिए | पर अनपढ़ों को अक्सर बेवकूफ भी मान लिया जाता है, तो बूढ़ी अम्मा की बात पे किसी ने गौर नहीं फ़रमाया |
अब अगर किसीको आप बचपन से पानी की जगह दूध ही पिलाओ, या स्पून ब्रेस्ट फीड ही करते जाओ तो आदत तो लग ही जाएगी |अब किसीके कच्छे भी माँ या बेहेन ही धोये तो उसको काहे की आग लगी है जो अपना काम खुद कर ले, बस वही यश के साथ हुआ, उसको आदत लग गयी, सिर्फ पढने की और अपना काम ना करने की | सिर्फ पढने से ही देश चलता होता तो क्या बात थी |
जब पढ़ी लिखी सुन्दर सुशील बीवी घर में आई तो सबकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा | साथ में सरकारी नौकरी, उससे सोने पे सुहागा हो गया | अब लड़की जब पढ़ी लिखी थी तो काम तो करेगी ही, बर्तन भांडे धोने के लिए थोड़े ना कोई पढाई करता है | पर यश की माँ ठहरी १९७० का मॉडल, बहू है तो काम वही करेगी | यश ने देखा की बीवी किचन में भी जुटी है, दफ्तर में भी, तो उसने हाथ बांटने की पेशकश की | बीवी का दर्द ज्यादा टाइम देखा भी नहीं जाता | बस वहीँ गड़बड़ हो गयी | यश की माँ को लगा की लड़का तो हाथ से गया अब | पर वो ये भूल गयी की लड़की अर्धांगिनी बन के आई है, मतलब की आधा हिस्सा, हिस्सा आधा दो और काम पूरा लो ऐसा तो किसी भी देश में नहीं चल सकता |
और उस दिन से यश पे जोरू का ग़ुलाम का लेबेल लग गया |
आस पड़ोस की औरतें और यहाँ तक की स्कूल जाते बच्चे भी यश को ज़ोरु का ग़ुलाम नाम से जानने लगे, बच्चा तो वही सीखेगा ना जो देखेगा, सुनेगा | वरना बच्चे को क्या पता होगा जोरू का और जोरू के ग़ुलाम का |
अम्मा यश के घर से बड़बड़ाती हुई निकली, शुक्र है मैं पढ़ लिख नहीं गयी, नहीं तो मैं भी ………… |
क्या आपके घर में भी हॉउस होल्ड ड्यूटी ऑटोमॅटिकली आपकी पढ़ी लिखी बेहेन ही देखती है, जैसे कि खाना बनाओ, कपड़े धोना, बर्तन धोना|
और सबसे ज्यादा इम्पोर्टेंट सूखे हुए कपड़े छत से लाना ? क्या आपने कभी अपने धुले हुए कपड़ों को तह लगाया है? या वो भी आपकी बेहेन ही करती है ?
अगर ऐसा है तो आप में भी ज़ोरु का ग़ुलाम बन्ने का भरपूर टेलेंट है |
]]>देश के लगभग सभी राज्यों में ट्रक एक ही टाइम पे चलते हैं, शाम पांच बजे से सुबह सात बजे तक, दिन में दिक्कत होती है आम जनता को उनके चलने से| वैसे आम जनता को हर एक चीज़ से दिक्कत होती है, लेकिन ट्रक के चलने से ज्यादा दिक्कत होती है| किसी ट्रक के पीछे चलना किसी भी गाडी वाले के लिए सबसे बुरा सपना होता है | ट्रक अगर लोडेड हो तो क्या कहने, चींटी की चाल से चलते ट्रक के पीछे चलने में जो फ्रस्ट्रेशन और खीझ होती है उसका कोई मुकाबला नहीं है | पर ये ट्रक अक्सर कई बार नैय्या भी पार लगा देते हैं, अक्सर लोग किसी ओवेरटेक करते हुए ट्रक के पीछे अपनी गाडी चिपका देते हैं, रास्ता ट्रक साफ़ करता है और आप की भी निकल पड़ती है, मुश्किल आने पे साइड का इंडिकेटर जलाओ और दांत फाड़ते हुए अपनी लेन में घुस जाओ | कुछ लोग ऐसे मौकों पे सामने से आती गाडी के ड्राइवर से नजर नहीं मिलते, भाई चलती सड़क पे अपनी गलती मानें या जान बचाएँ| हिमाचल में जो टूरिस्ट आते हैं, वो तो बस ट्रक के पीछे लगके ही पास लेते हैं, कभी कोई ट्रक दिखे आगे से आता हुआ, तो जान लेना की उसके पीछे कम से कम दो गाड़ी तो जरुर छिपी होगी, मौका ताड़ के आगे निकलने की फ़िराक में| और गाड़ी पे पंजाब – हरयाणा का नंबर हो, इसके चांसेज काफी होंगे |
मैं एक दफा एक ऐसे ही जांबाज़ ट्रक ड्राइवर से मिला . चेन्नई से लेह जा रहे थे भाईसाहब, पूरा एक महीना हो गया था घर से निकले| आर्मी का कुछ सामान ले जा रहे थे, कह रहे थे, टूटी फूटी हिंदी में, कि साहब जान जाती है आर्मी वालों को देश को बचाने में उनके लिए सब करेंगे| और सबसे इंटरेस्टिंग बात ये थी की चेन्नई में भी ट्रक ड्राइवर स्पेशल गाने बनते हैं, चमकीला स्टाइल [अमर सिंह चमकीला: द लेजेंड] | बड़ी अजीब बात है की इस देश में कोई एक भाषा नहीं है फिर भी चेन्नई से चल के एक अनपढ़, हिंदी ना जानने वाला ट्रक ड्राइवर मनाली पहुँच जाता है, हर साल, उसको किसी भाषा की जरुरत नहीं पड़ती|
मैंने सोचा कि जिंदगी तो ट्रक वाले कि भी किसी आर्मी मैन से कम नहीं है, महीनों घर से बाहर, कोई खोज नहीं,कोई खबर नहीं| और अगर किसी खाई में लुढ़क जाओ तो महीनों लग जाएँ लाश निकलने में, कई बार लाश मिलती भी नहीं, और मिलती भी है तो लोकल पोलिस वहीँ लोकल मुर्दाघर में मामला निपटा डालते हैं, इलेक्ट्रिक चेयर पे बिठाके, न लकड़ी न धुआं, न पंडित, न पुजारी, लापरवाही का केस अलग चलता है|
बस एक दिक्कत है, जब से रतन टाटा और अशोक लेलैंड एंड कंपनी ने पॉवर स्टीरिंग लगवा के दिए हैं ट्रक में, कुछ जांबाज़ ड्राइवर, लोडेड ट्रक को मारुती स्विफ्ट समझ के चलते हैं, बस वहीँ थोडा सीन गड़बड़ हो जाता है| एक बार मेरे ऊपर चढ़ गया था ऐसा ही एक शूरवीर, तब मुझे अपने पिताजी की एक बात याद आ गयी की जिस भी ट्रक पे एच पी – ११ (HP-11) नंबर लगा हो उससे पंगा नहीं लेने का| मैंने लिया और पाया गया, आप ध्यान रखना, HP-11 का मतलब है द रियल रोड किंग, न पास मांगने का, न ही हीरो बनने का|
पर आर्मी वाले अलग हैं, देश के लिए मरते हैं भाई, ट्रक वाले ऐसे ही मर जाते हैं|
सात से पांच में अँधेरा होता है ना, और अँधेरे में कुछ ख़ास दिखाई नहीं पड़ता|
घर में मेहमान आये हुए थे, सब लोग बच्ची की हरकतें देख कर काफी खुश थे, मेहमानों की लड़की भी थी साथ, उसने उस बच्ची की फोटो खींची और “माय क्यूट कजिन ” के नाम से पलभर में फेसबुक पर उपलोड कर डाली|
बच्ची पूरे हॉल में घूम के वापिस चली गयी | सब लोग बात कर रहे थे की बच्चे कितने मासूम होते हैं और कैसे उनकी मासूमियत खो जाती है वक़्त के साथ, समाज के साथ|
थोड़ी देर में वही बच्ची अपनी माँ की बनियान, जिसे अंग्रेजी में ब्रा कहते हैं, बनियान की जगह अपने सिर पे रख कर आ गयी| बाप ने फोन छोड़ के अपनी बीवी की तरफ देखा और बच्ची की तरफ लपका | बच्ची भाग के माँ के पास चली गयी, माँ ने ब्रा ऐसे उठाई जैसे कोई बोम्ब हो और पल भर में फट पड़ेगा, मेहमान महिला का चेहरा लाल हो गया और छोटी बच्ची की माँ उसे मारती हुई अन्दर वाले कमरे में ले गयी|
मेहमानों की लड़की बीजी थी अपने फेसबुक प्रोफाइल के लाइक्स और काम्मेंट्स गिनने में, उसने भी शायद एम्बेरेस्मेंट से बचने के लिए मोबाईल में मुहं घुसा लिया था |
बच्ची की माँ ने ब्रा इस तरह पकड़ रखी थी हाथ में , जैसे कोई खून सना खंजर हो, एकदम छुपा के |
और बच्ची रोते हुए बस यही कह रही थी, मैंने क्या किया, मैं तो फोटो खिंचवाने आई थी ममा|
पर बच्ची कहाँ जानती थी की होती तो ब्रा भी बनियान ही है, पर उसके साथ कुछ रहस्यमयी ख़यालात जुड़ गए हैं आज के समाज में|