Walking is a necessity for pahadi people because they can’t get along without walking. Snowfall, landslides, glaciers, avalanche, and global warming is their reality. For city dwellers, walking has become a necessity to keep a check on their physical, mental, sexual, and spiritual issues. For pahadi people, walking is a necessity because there is no other option.
My good friend, Naveen Boktapa, a professional Animation Designer from Tandi (Lahaul Valley) shares his story of walking in fresh snow over the mighty Rohtang Top. He walked 77.6 kilometers (approximately), traveled in the backseat of a car, and yet he claims that it wasn’t that difficult. Students, patients, pregnant ladies, teachers, and everyone who has got something to do with the Lahaul, Spiti, or Chamba region walk over the snow, mountains, and water bodies to reach home. Life in the Himalayas is indeed difficult, just that their definition of difficulty and danger is bit different.
Let us hear it from Mr. Naveen Boktapa.
ज़िंदगी के शुरुआती 16 सालों मे मैं अपने घर से 16 किलो मीटर दूर भी नही गया था| कभी जाने की ज़रूरत भी नही पड़ी| सुना था या पढ़ा था की दुनिया गोल है पर जो स्ट्रक्चर मैं ने देखा था उस मे वो गोलाई कहीं ढूंढ नही पाया| पथरीले पहाड़ों के ऊपर टिका नीला सपाट आसमान, गोल कहाँ से हुआ? कई बार नाना जी से ज़िद की कि सीढ़ी ले के जाएँगे उस चोटी पे और आसमान मे चढ़ेंगे| बाहर की दुनिया मे कुल्लू मनाली के अस्तित्व पर यकीन था क्यों की लोगों को जाते और वहाँ से वापस आते हुए देखा था| जाने की हसरत थी पर उस टाइम उस हसरत की वैल्यु बिलकुल वैसी थी जैसे अभी अमरीका जाने की है| शिमला दिल्ली चंडीगड़ तो सिर्फ़ टीवी मे देखे थे और वहाँ जाने की सोचना जैसे चाँद पे जाना. खैर, जब भी कुल्लू मनाली के बात चलती, एक महाशय हमेशा चर्चा मे आते, रोहतांग पास, या आम ज़ुबान मे ‘टॉप’]Rohtang Top].
जब अप्रैल-मई मे बर्फ पिघलनी शुरू होती है और GREF और BRO मनाली लेह नॅशनल हाइवे से बर्फ की सफाई शुरू करना शुरू करते हैं तभी से लोग रोहतांग पास को पैदल क्रॉस करना शुरू कर देते हैं| ४-५ महीने से लाहौल मे फंसे लोगों को बाहर खरीददारी, चिकित्सा या रिश्ते नाते निभाने जाना होता है और जो लोग बाहर थे उन्हे जल्दी घर आ कर परिजनो से मिलना या खेतीबाड़ी का काम शुरू करना होता है| ये यात्रा ऐसी जिस मे लोग जान हथेली पे लेके चलते हैं| इसे मजबूरी कहें, बहादुरी या लोगों के हार ना मानने का ज़ज़्बा, लगभग हर लाहौली ने रोहतांग को कई पार क़दमों से नापा है|
इस दर्रे की सब से खतरनाक कहानी मैंने अपने भाई की ज़ुबानी सुनी जब पहली बार उस ने इस पे झण्डा गाड़ा. मेरे भाई साब मेरे लिए सूपर हीरो हैं, और मैं हमेशा उनके जैसा बनना चाहता हूँ. ये अलग बात है कि ह्म दोनो की मासपेशियों को बनाने मे इस्तेमाल हुई मटेरिअल मे ज़मीन आसमान का फ़र्क है| कैसे बरफ पर बने २-२ फीट गहरे पैरों के निशान २ सेकेंड्स मे मिट जाते है| इस सब हालात मे भी अपने ‘स्पिरिट’ को ‘हाइ’ रखना बहुत ज़रूरी होता है, बस मुट्ठी भर ग्लूकान डी मूह मे फांको और ‘तुरंत शक्ति‘ का नारा लगा के बढ़ते जाओ. वक्त गुज़रा और उच्च शिक्षा के बहाने मुझे भी कुल्लू जाने का वीज़ा मिल गया. मा कसम चकाचौंध ऐसी कि आँखें खराब हो गई. चौड़ी सड़कें, इतनी सारी गाड़ियाँ, जगमगाते इश्तिहार, लाइन से लगी दुकाने, ज्वाइंट लगाते लड़के और अँग्रेज़ी मे बोलने वाली लड़कियाँ|
और वो वक्त भी आया जब मुझे घर वापस आने के लिए मनाली से कोकसर (७० किलोमीटर) तक का सफ़र पैदल तय करना था. २००२ अप्रेल का वक्त था और मनाली लेह हाइ वे से बर्फ की सफाई शुरू हो चुकी थी. मनाली से ले कर मॅढी से दो मोड़ नीचे तक का रास्ता छोटी गाड़ियों के लिए खुल चुका था और दूसरी तरफ लाहौल से खबर थी कि गाड़ियाँ कोकसर तक पहुच रही हैं| इस वक्त वादी मे मटर की बीजाई शुरू होने वाली होती है और भारी तादाद मे लोकल जनता और नेपाली मजदूर मनाली से लाहौल की तरफ कूच करते हैं|
अगली सुबह ३ बजे हमे निकलना था. अपने बदन को गरम रखने का जितना हो सके उतना इंतज़ाम कर लिया गया. गरम टोपी, मफ्लर, गॉगल्स, दस्ताने, ऊनी जुराबें, इन सब के बगैर सफ़र के बारे मे सोचना जैसे आस्ट्रेलियाई पिच पर बगेर रक्षा कवच पहेने बल्लेबाजी करने जैसा था. रात को सफ़र के लिए खाने पीने का जुगाड़ बांध लिया गया. मेरे बैग मे 8 पराठे और पानी की २ बोतलें आई| हम ने दो दो कप चाय हलख मे उडेली और जय राजा घेपण, जय भोले नाथ का नारा लगा के ३ बजे सफ़र का शुभारंभ किया| आसमान मे तारे थे और अंधेरे मे बरफ की दो दीवारों के बीच पतली सड़क पर गाड़ी की सवारी गज़ब की फीलिंग दे रही था| ५:३० बजे हम उस पहाड़ के सीने पर पहुच गये जहाँ पर आ के मनु महाराज ने भी गिव अप मार दिया और कुलान्थपिथा ( Kulanthpitha – `the end of the habitable world’) का नाम करण कर दिया| सो अब गाड़ियों का रास्ता ख़तम हो चुका था और आगे की खड़ी चढ़ाई के लिए अपने दो पैरों का ही सहारा था| अंधियारा काफ़ी कम हो चुका था और आस पास का नज़ारा दिखने लगा था| २५-३० गाड़ियाँ हम से पहले ही पहुच चुकी थी और उन गाड़ियों से निकलती एक लंबी चीटियों जैसी लाइन ऊपर क्षितिज तक जाती दिख रही थी| हमे भी उसी लाइन का हिस्सा बनना था|
हमारा जत्था भी कूच कर गया और हम सब एक लाइन मे एक के पीछे एक हो के चढ़ने लगे| इस सिंगल फाइल फॉर्मेशन के पीछे का रहस्य ये है कि बर्फ मे हर कोई अपने आप से नही चल सकता| ताज़ी पड़ी बर्फ मे पेर धँसने लगते हैं जो फौलादी, भोकाली शरीर वाले इंसान को भी तिगुने रफ़्तार से थका सकती है| सो कोई एक बंदा आगे आगे चल के बर्फ को पैरों से दबा कर एक संकरी सी पगडंडी निकालता है और बाकी लोग पीछे पीछे उसी पगडंडी पर चलते हैं| जवानी के जोश मे मेरे कदमो मे रफ़्तार थी| पर मढ़ी तक पहुचते पहुचते सारे जोश की हवा निकल चुकी थी| कदम उठाना मुश्किल हो रहा था, और फेफड़े जवाब दे रहे थे| समझ आया की खरगोश नही कछुवा बनने मे ही भलाई है| दो घूँट पानी के साथ थोड़ा ग्लूकान डी खाया गया पर ऐसी ठंड मे पानी पीना अपने दाँतों पे सरासर अत्याचार करना था| थोड़ी और चढ़ाई के बाद घने कोहरे के साथ बर्फ गिरनी शुरू हो गई| अब ठंडी हवा और बर्फ का डेड्ली कॉंबिनेशन अपने जलवे दिखाने लगा| वो दो पैरों के लिए बना पतला सा नया नवेला रास्ता अस्तित्व मे आते ही गायब होने लगा| पैरों के हटाते ही ताज़ी बर्फ़ीली हवा सारे सबूत मिटाने लगी| और इस बर्फ़ीली हवा के थपेड़े जब चहेरे पर पड़ते तो साँसों के साथ नज़रें भी लाचार होने लगी| इन सभी हालातों मे रुक के सुस्ताने का कोई मतलब नही था, वैसे भी वहां कोई रेन-शेल्टर या रेस्ट-हट्ज़ तो बने नहीं थे| बस किसी तरह अपने आप को आगे घसीटते रहना था| करीब करीब ६०० – ७०० लोगों मे अधिकतर लोग स्थानीय निवासी थे, कुछ कुल्लू और मंडी से सरकारी मुलाज़िम जिन्हे ड्यूटी पे पहुचना था. काफ़ी संख्या नेपालियों की थी जो हर साल नेपाल से यहाँ पर आ कर रोहतांग क्रॉस कर के घाटी मे ६० रुपय दिहाड़ी की मज़दूरी करते हैं| ये लोग अपने बोरिया बिस्तर के साथ चल पड़े थे| इन मे से कई लोग अपने परिवार के साथ थे| परिवार मे छोटे बच्चे भी थे| कुछ ५-६ साल के नाइलॉन के लाल जूतों मे नंगे पैर के साथ चल रहे थे, और कुछ दूध मुहे, पतली सी चादर के सहारे अपनी माओं की पीठ पे लटके हुए| अमूमन सारे बच्चे ठंड के मारे रो रहे थे| और जो नही रो रहे थे वो रोने की कगार पर थे| उन की माएँ थप्पड़ मार कर उन्हे चुप कर रही थी| लोकल महिलाएँ नेपाली माओं को झाड़ रहीं थी, “बच्चों को मारने लाई हैं क्या? उन्हे तो छोड़ के आतीं.”
पर अगर उन के पास छोड़ने का आप्शन होता तो शायद वो उन्हें साथ ही नही लाती|
इन सब मे एक और खास जोड़ा था. दो फिरंगियों का. अत्याधुनिक पोशाकों और उपकरणों से लैस, आँखों मे चौड़े गॉगल्स, और दोनो हाथों मे स्कीइंग स्टिक्स. गिरते पढ़ते चढ़ रहे थे| साँसें फूली हुई, चला नहीं जा रहा, नाक से पानी बह कर गले तक पहुच चुका था| कुल मिला कर कुत्ते जैसी हालत हो रखी थी| पर अड्वेंचर कर रहे थे| कोई ज़रूरत नहीं थी, आराम से मनाली मे मस्ती कर सकते थे| पर उन्हे भी रोहतांग क्रॉस करना था, नेपालियों को भी और लहौलियों को भी|
फ़र्क इतना था, किसी की ज़रूरत थी, किसी की मजबूरी, और कोई फन के लिए कर रहा था|
११:३० के आस पास, रोहतांग टॉप की आखरी चढ़ाई चढ़ रहे थे| हालत खराब थी, बैग में रखे 8 पराठे 8 क्विंटल जैसे लग रहे थे| अभी तक खाने का मौका नहीं मिला था| बैग उतार के फेंकने का मन कर रहा था| अच्छी बात ये थी की चढ़ाई ख़तम हो रही थी और मौसम भी ठीक हो रहा था| आख़िरकार बादलों का वो आखरी टुकड़ा भी हट गया| और आगे…. आगे जन्नत थी ,अलौकिक मनोहारी विहंगम दृश्य|शब्दों मे बयां करना रोहतांग की चढ़ाई जैसा ही मुश्किल है| अब आगे कोई चढ़ाई नहीं थी, अब बस उतरना था| पराठे खाए गये| सूर्यदेव ने बदन गरमा दिया था| थोड़ी देर आराम करने के बाद चल पड़े| प्लान ये था की कोकसर पहुँच कर थुपका मोमो खाया जाएगा और गाड़ी ले के चल पड़ेंगे| उतरने का काम आसान था, वो भी बर्फ पर, आधे से ज़्यादा रास्ता फिसल कर तय हो गया| अब आगे की कोई टेंशन नही थी| कोकसर मे थुपका-मोमो, वहाँ से गाड़ी और ३ घंटे मे घर| सब सेट था पर जैसे ही कोकसर पहुंचे, एक बुरी खबर हमारा इंतज़ार कर रही थी. सिसु(Sissu) के आस पास कहीं रोड खराब हो गया था| गाड़ियाँ वहाँ से आगे नही आईं|
सिसु तक १४ किलो मीटर और पैदल जाना पड़ेगा| थुपका-मोमो सब गले मे ही अटक गया| बुझे मन से सड़क की टूटी फूटी कोलतार पर पैर पटकते हुए चल पड़े| करीब चार बजे सिसु पहुचे, नाले मे लैंड-स्लाइड हुआ था, साथ मे सड़क भी ‘स्लाइड’ कर गई| वहाँ गाड़ियाँ खड़ी थी, पर भीड़ ज़्यादा थी, गाड़िया कम| फटाफट एक सूमो के फ्रंट सीट पर क़ब्ज़ा जमाया गया| ड्राइवर छत पर सामान चढ़ा रहा था, मेरा समान किसी और के बैग मे था| उतर के सामान अपने क़ब्ज़े मे लिया और वापस सीट की ओर आया, देखा एक भद्रपुरुष मेरी सीट पर विराजमान है| पूछने पर मुस्कुरा के बोले खाली थी तो बैठ गया| मेरे पास कोई सबूत नहीं था, ड्राइवर भी नहीं था अंदर, मैं चुपचाप डिक्की मे घुस के बैठ गया| वहाँ से तांदी पुल तक के सफ़र मे टूटी फूटी सड़क पर हिचकोले खाने से ज़्यादा इंट्रेस्टिंग कुछ हुआ नही| तो इस तरह सफ़र ख़तम हो गया|
ये सफ़र मेरे लिए तकलीफ़ दायक था, पर पहले के लोगों ने इस से भी भयानक यात्राएँ की हैं| लोग कोहरे मे खो के भटके हैं, लोगों को चलते चलते जमते हुए भी देखा है|
रोहतांग टनल की मांग कई दशकों से की गई थी, पर क़बायलियों की आवाज़ किसी ने नही सुनी| भला हो उन पाकिस्तानियों का जिन्हो ने १९९९ मे कारगिल पर अतिक्रमण किया और हिन्दुस्तानी सरकार को मनाली-लेह हाइवे के सामरिक महत्व का पता चला | फटाफट टनल की घोषणा की गई और आज की डेट मे रोहतांग के सीने मे परमानेंट सुराख बनाया जा रहा है| देखो कब बनता है, हमारे यहाँ वैसे भी कबायलियों की आवाज़ देर से ही सुनाई देती है सरकार को, दूर से आती है ना, कई बार बर्फ में ही दबी रह जाती है |
फिर शायद ऐसे अनुभव किस्से कहानियों मे ही पाए जाएँगे|
P.S. मढ़ी से कोकसर(३७.२ किलोमीटर), एक बार फिर जाना हुआ था| पदयात्रा एक बार फिर |
पढ़ कर जोश सा आ गया । काश मे भी पैदल सफर कर पाता । अपनी गाड़ी मे रोहतांग बहुत बार गया हु । लिखते अच्छा है आप भाई ।
Too much! :O
Its very nice presentation of excitement and adventure…story is simply told n i just felt like a screen play is goin on in front of me…nice work tarun..keep it up..
बहुत सुन्दर ! प्रामाणिक ,प्रेरक और ईमानदार .हर लाहुली के पास रोह्ताँग पर पदयात्रा के ढेर सारे अनुभव होते हैं , जो साधारण पाठक को अद्भुत लग सकता है ; जबकि लाहुल वासी के जीवन का हिस्सा है यह.रोहतांग के यात्रा संस्मरण बहुत पढ़े हैं….. लेकिन यह कमाल का है.
Awesome story brother!! it was great reading through it and of course hats off to the spirit