मार्च 2019 में लाहौल के चार लोग रोहतांग पैदल ही पार कर मनाली आ गए , सिस्सू से पैदल चलना शुरू किया और 12 घंटे बाद मनाली पहुंचे। कारण: इनकी कोई परीक्षा थी मनाली में, शायद JBT टेस्ट था।
हर साल मार्च-अप्रैल में लाहौली (वो वाले जो हमेशा से लाहौल में रहे हैं, डुप्लीकेट लाहौली नहीं जो कभी लाहौल में रहे ही नहीं) हेलीकॉप्टर के अभाव में, पैदल रोहतांग लांघना शुरू कर देते हैं। कभी बर्फ कम हो तो मार्च से ही यह आवाजाही शुरू हो जाती है और कभी बर्फ ज्यादा हो तो अप्रैल तक ही रोहतांग पार हो पाता है। इस साल रिकार्डतोड़ बर्फबारी हुई है और ऐसी बर्फ में , मार्च के महीने में रोहतांग पार करना बहुत ही ज्यादा बड़ी बात है|
मैंने तीन बार अप्रैल में रोहतांग लांघा है, और नहीं मैं कोई लाहौल का एक्सपर्ट होने का क्लेम नहीं करता पर मार्च-अप्रैल में रोहतांग एक जानलेवा दर्रा है। हवा तेज़ हो तो 50-60 किलो के आदमी को उड़ा कर वापिस मनाली पहुंचा दे। जब मैं पहली बार गया था तब 55 किलो का था, 4 फुट का हाई जम्प तो मुझे भी मिला था ….
सवाल ये है की रोहतांग को लोग पैदल लांघते क्यों हैं?
जवाब ये है कि वहां सरकारी मुलाजिम रहते हैं, बिहारी-नेपाली कामकाजी मजदूर रहते हैं, और लोकल बाशिंदे रहते हैं जो इतने अमीर नहीं हो पाए कि कुल्लू में घर बना सकें।
मरीज जिनका इलाज लाहौल में न कभी हुआ है और न ही कभी आने वाले 200 सालों में होगा।
और उसके बाद रोजगार के चाहवान बेरोजगार युवक जिनकी पढ़ाई उनका कवच नहीं बोझ बन चुकी है।
मैंने भी अपनी किताब सबसे ऊँचा पहाड़ का एक चैप्टर रोहतांग यात्राओं को समर्पित किया है , पढ़िए…
रोहतांग सुरंग की माँग कई दशकों से उठती रही है, पर लाहौल के कबायलियों की आवाज किसी ने नहीं सुनी। कारगिल 1999 के बाद सरकार जागी और दिव्यज्ञान की भाँति देश को मनाली-लेह हाइवे के सामरिक महत्व का पता चला। फटाफट टनल की घोषणा की गई और आज रोहतांग के सीने में ‘परमानेंट’ सुराख बनाया जा रहा है। मरीजों के लिए रोहतांग कभी-कभी सुरंग खोल दी जाती है।
सर्दियों में लाहौल घाटी में गाड़ियों की आवाजाही बंद नहीं होती, इसलिए आप लाहौल में सड़क मार्ग से यात्रा कर सकते हैं। पर सर्दियों के चार महीने – दिसंबर से मार्च तक – लाहौल बाहरी दुनिया से कटा रहता है, केवल हेलीकॉप्टर से ही अंदर-बाहर आना या जाना हो सकता है। लेकिन जिस देश में रेस्ट हाउस में कमरा बुक करने के लिए मंत्री के फोन की जरूरत पड़ जाए, वहाँ कायदे-नियम से हेलीकॉप्टर में बैठने के लिए तो ‘बराक ओबामा’ से जान-पहचान होना जरूरी हो जाता है। इस पचड़े में न पड़ते हुए लाहौल के लोग अप्रैल के महीने में पैदल ही रोहतांग लाँघकर मनाली चले आते हैं।
मेरा मित्र, नवीन बोक्टापा जो लाहौल के सुमनाम गाँव का रहने वाला है, ने जब पहली बार बताया कि कैसे लोग मनाली से सिस्सू-कोकसर तक पैदल ही चले आते हैं, तो कानों सुने पर एक बार तो विश्वास ही नहीं हुआ। 2002 में नवीन स्वयं रोहतांग पैदल लाँघकर घर गया था। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आने से पहले, रोहतांग मई से लेकर नवंबर तक गुड़गाँव के इफको चौक-सा दिखाई पड़ता था। हर तरफ गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ। हिमाचल के ‘भले मानस’ दोनों हाथों और पैरों से बाहरी राज्यों से आए टूरिस्टों का शोषण करते हुए पाए जाते थे। रोहतांग रुककर देखना कार्बन डाइऑक्साइड की भट्टी में मुँह देने समान हो गया था। इन सबसे बचने के लिए और रोहतांग को उसके पुराने स्वरूप में देखने के लिए, नवीन ने मुझे प्रोत्साहित किया – जाओ, रोहतांग कबायलियों के साथ पैदल लाँघो।
और मैं तैयार हो गया इस रोमांचकारी यात्रा के लिए – रोहतांग पद यात्रा, अप्रैल 2012
“गाड़ी 4 बजे सुबह मनाली से चलेगी, आप 3 बजे मनाली बस अड्डे पर मिलना।” यह सुनते ही मैं बर्फीले स्वप्नलोक में खो जाता हूँ। सर्दियों का रोहतांग कैसा होगा, यह सोचकर ही बहुत मजा आ रहा है। मैं सुंदरनगर से रात 12 बजे की बस में बैठ मनाली जा रहा हूँ, जो 2 बजे मनाली पहुँचा देती है। अब वहाँ एक घंटा प्रतीक्षा करनी है। बस अड्डे में लोहे के बेंच बने हैं, जिन पर कुछ कुत्ते उलटे-सीधे लेटे पड़े हैं। उन कुत्तों से परस्पर दूरी बनाकर कोने के बेंच पर बैठता हूँ। ठंडा लोहा पिछवाड़े को सुन्न करता हुआ कुंडलिनी को जगाने का प्रयास करता है। झटके से उठता हूँ तो कुत्ते घबराकर भौंकने लगते हैं। बस अड्डे के बाहर चाय का ठेला है। ठेले वाला मंडी का है, उससे मंडयाली में बात करता हूँ। पूरा एक घंटा वह यह जानने की कोशिश में बोलता रहता है कि मैं लाहौल जा क्यों रहा हूँ। उसका मानना है कि मैं जड़ी-बूटियों का व्यापारी हूँ, जोकि मैं नहीं हूँ। पर अगर होता तो उसका मुँह बंद करने की एक जड़ी उसे खिलाता और खुद ठंड से सोई हुई कुंडलिनी को जगाने की बूटी खाता।
3 बजे टैक्सी वाला आता है, लाहौल जाने वाले सब यात्रियों को फोन मिलाता है। उसका भी वही सवाल है – “आप क्यों जा रहे हो?” गाड़ी पूरे चार बजे निकलती है। कुछ मास्टर लोग छुट्टी काटकर वापिस स्कूल जा रहे हैं। कुछ मरीज हैं जो मनाली में डाक्टर से मिलकर वापिस घर जा रहे हैं। इनको अगले हफ्ते फिर मनाली आना है, क्योंकि मनाली के डाक्टर ने इनको शिमला के डाक्टर से मिलने को कहा है।
गाड़ी मढ़ी से 4 किलोमीटर पहले खड़ी हो गई है, आगे बर्फ की दीवारें हैं और गाड़ी आगे नहीं जा पाएगी। 500 रुपये प्रति व्यक्ति किराया देकर सब गहरी साँस भरते हुए आगे बढ़ रहे हैं। मुझे छोड़ सबको खबर है कि आगे क्या हो सकता है। मुझे केवल बर्फीले रोहतांग के दर्शन की लालसा है। बर्फ जमने से सड़क शीशा बन चुकी है। दो लोग धड़ाम से गिर चुके हैं। एक के हाथ से खून बह रहा है। कुछ लोग हँस रहे हैं और कुछ लोग डर रहे हैं।
मैं न हँसता हूँ और न डरता हूँ, बस सोच रहा हूँ कि ये गोरखधंधा क्या है। अगर किसी को विकल्प मिलता, क्या वह तब भी लाहौल में पैदा होना चुनता? हाँ, चंडीगढ़-मनाली में पले-बढ़े लाहौली तो हर जन्म में केवल लाहौली ‘कहलवाना’ पसंद करेंगे। लाहौली होने और लाहौली कहलवाने में जमीन-आसमान का अंतर है।
मढ़ी से आगे सड़क मार्ग से न जाकर अब सब लोग बर्फीली चादर पर चल रहे हैं, एक के पीछे एक। बर्फ ‘पाउडर’ समान है, अब गिरने का डर नहीं है; पर अब हवा का वेग अति तीव्र है। रोहतांग पर डलहौजी से चलकर आया धौलाधार, पांगी से आए पीर पंजाल से मिलता है। दो पर्वत श्रंखलाओं के मिलने से रोहतांग पर हवा खुशी से नाचती फिरती है और मेरे जैसे हल्के वजन के आदमियों के लिए यह बड़े खतरे की बात है। अब मैं थक चुका हूँ। राहनी नाला तक सब लोग ओझल हो चुके हैं और लाहौल से आने वाले लोग रोहतांग लाँघकर इस ओर पहुँच चुके हैं। पाउडर-सी बर्फ मेरे जूतों को भर चुकी है और भूख-प्यास के मारे जान निकल रही है। गिरते-पड़ते रोहतांग पहुँचता हूँ तो देखता हूँ, यहाँ तो पिकनिक चल रही है। दूध, अंडा, जूस बँट रहा है, मुझे भी दो अंडे मिलते हैं। नीचे ग्लेशियर पर लाहौल से आए लोग ऊपर चढ़ रहे हैं – एक लाइन में। हमें भी वहीं जाना है। दूसरी ओर से आए यात्री खबर देते हैं कि कोकसर तक पैदल जाना होगा। स्नो कटिंग का काम चल रहा है, आर्मी वाले गाड़ी ऊपर नहीं आने दे रहे। सड़क मार्ग से रोहतांग-कोकसर की दूरी 19 किलोमीटर है। सुनते ही मुझे ‘शॉर्ट टर्म मेमरी लॉस’ का आभास होता है।
अब क्या करूँगा?
न आगे जा सकता हूँ और न पीछे मुड़ सकता हूँ। जूस की इच्छा में मास्टर जी की तरफ देखता हूँ। मेरी आँखों में ‘प्यास’ देखकर वे अंतिम पैकेट मेरी ओर फेंककर आगे बढ़ जाते हैं। अब मैं हूँ और रोहतांग की बर्फीली हवाएँ हैं। नीचे लोग एक-एक करके परिदृश्य से ओझल हो रहे हैं। कोकसर से अंतिम बस 3 बजे निकल जाएगी और जैसी मेरी हालत है, मुझे कोकसर पहुँचने में 3 जन्म भी लग सकते हैं। नीचे ‘बॉर्डर रोड्स’ के फौजी और बिहार के कर्मठ मजदूर बर्फ कटाई अभियान में जुटे हैं। 3 बजे कोकसर पहुँचता हूँ। बस आज आई ही नहीं। एक टैक्सी वाला है जो घर वापिस जा रहा है। उसी के साथ सोते-सोते, गाड़ी के खिड़की-दरवाजे से भिड़ता हुआ केलंग पहुँचता हूँ।
रुकूँगा कहाँ?
पी.डब्लू.डी. का रेस्ट हाउस बस अड्डे के साथ है, पर चौकीदार का कहना है पहले जिलाधीश से ‘परमिशन’ ले आओ। रेस्ट हाउस के लिए ‘डिप्टी कमिश्नर’ का परमिशन! चलो बढ़िया है, नहीं तो जिला मंडी में तो सीधा मंत्री से परमिशन लेना पड़ता है। जिलाधीश महोदय अपने कार्यालय में हीटर की ओर मुँह करके और दरवाजे की ओर पीठ करके बैठे हैं। बस जूते ही टेबल पर रखने बचते थे, नहीं तो बाजीगर का सीन रिपीट हो जाता। इस बर्फीले रेगिस्तान में उनका मन नहीं है, यह मैं उनकी आँखें देखकर समझ सकता हूँ। उनका पूछना है, क्यों आए हो? मेरा कहना है ऐसे ही, घूमने। यहाँ-कहाँ घूमोगे यार बर्फ में? चलो जाओ घूमो, कुछ अच्छा दिखे तो लौटते समय मुझे भी बताना।
अब रेस्ट हाउस में कमरा है, पर पानी नहीं। बिस्तर है, पर खाना नहीं। केलंग की गलियों में शाम 7 बजे कुत्तों का साम्राज्य स्थापित है। एक नेपाली ढाबे में खाना मिलेगा, पर केवल माँस-भात। अब माँस बकरे का है या कुत्ते का – यह बता पाना थोड़ा कठिन है। लाहौल की घाटी बर्फ में रुकती नहीं है। कभी-कभार रुकती है जब बर्फबारी भारी हो जाए, अन्यथा चलती रहती है, धीमे-धीमे।
कारदंग गोंपा बर्फ से लदा पड़ा है और उसके ऊपर रांगछा गली पास है जहाँ से चंद्रा और भागा की घाटियाँ एक साथ देखी जा सकती हैं।
दोपहर को मनाली वापसी का इंतजाम करना होगा। गाड़ी उदयपुर से आएगी। सब यात्रीगण सुबह 2:30 बजे बस अड्डे पर मिलें – ऐसा फरमान टैक्सी वाले ने जारी कर दिया है। अगली सुबह फिर वही संघर्ष शुरू है। कोकसर से चढ़ाई प्रारंभ करते हैं। साथ में एक 68 साल के बुजुर्ग हैं, इनको मनाली अस्पताल में अपनी रिपोर्ट दिखानी है। ऊपर लाल रंग का हेलीकॉप्टर जा रहा है, जो लाहौल की बजाय दिल्ली की उड़ान ज्यादा लेता है।
2013 और 2015 में दो बार फिर रोहतांग पैदल यात्रा की गई। हर बार की वही कहानी – रोहतांग की सुरंग कब बनेगी? अब जब 2018 गुजरने ही वाला है, सुनते हैं रोहतांग सुरंग आम जनता के लिए खुलने ही वाली है। परंतु इसके साथ ही एक नई चिंता लाहौलवासियों को घेर रही है।
रोहतांग सुरंग जल्द ही खुलने वाली है – होने वाली आमदन का एहसास आप लाहौल की हवा में देख सकते हैं। हर गाँव में कैंप साइट खुल गया है और लाहौल के कैंप साइट ‘इंस्टेंट हिट’ होने की पूरी संभावना है। मनाली-चंडीगढ़ ‘फोरलेन’ हाइवे भी तब तक बन जाएगा और जो गाड़ियाँ आज मनाली में रुकती हैं, वे सीधा रोहतांग पार रुका करेंगी। 2019 लोकसभा चुनाव तक सुरंग खुलकर रहेगी और जब खुलेगी तो मैगी के पैकेट और ‘ओल्ड मोंक’ की बोतलों से, चंद्रा-भागा नदियाँ जरूर पटी पड़ी मिलेंगी। अब देखना यह है कि ‘वेस्ट मैनेजमेंट’ के बारे में सरकार और लाहौल के युवा उद्यमियों का क्या प्लान है।
या धर्मशाला की तरह केवल चुनावी वर्ष में कूड़े के डिब्बे विदेश से मंगवाकर लगाए जाएँगे?