“बधाई हो, आपको टूटे घुटनों के साथ टेनिस एल्बो भी प्राप्त हुआ है”, ऐसा हड्डी रोग विशेषज्ञ का कहना है
“चलो , सचिन तेंदुलकर सा ‘डिसिप्लिन’ ना सही, सचिन वाली बीमारी ही सही”, ऐसा मेरा मानना है
ये रहा दुर्गापुर राइड का सार। कुहनी मुड़ नहीं पा रही और मुड़ पा रही है तो फिर सीधी नहीं हो पा रही। चढ़ाई में साईकिल चलाने से भी मुश्किल है टूटी सड़क पर, ढलान पर साइकिल चलाना। सारा जोर कंधों और हाथों पर पड़ता है और उसी का नतीजा है टेनिस एल्बो
नवंबर 2017 में जब आखिरी साईकिल यात्रा की थी [रोहांडा साईकिल राइड] तब घुटनों ने जवाब दे दिया था।कई महीने साईकिल की तरफ देखा भी नहीं – उसी चक्कर में अपनी पहली किताब भी लिख डाली, पर अब लगभग एक साल बाद हिम्मत हो ही गयी। पहला प्लान था, साईकिल को उठाकर पराशर ले जाएंगे और वहां से फिर दूसरी तरफ हणोगी-पंडोह में उतरेंगे। पराशर मंडी जिला के द्रंग विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है, बीच में ब्यास नदी और ब्यास के उस पार सिराज विधानसभा क्षेत्र। कहने का मतलब है की ये सड़क कच्ची है इसलिए ज्यादा वांडर लसटीए यहाँ पाए नहीं जाते, साइकिल चलाने में मजा आएगा। हणोगी को पंडोह से जोड़ती सड़क अभी अधपकी सी है, इसे पकने में अभी कुछ और चुनाव लगेंगे। पर साईकिल यहाँ से नीचे जा सकती है, ऐसा मैंने विश्वस्त सूत्रों से सुन रखा था।
पर गूगल मैप में दूरी देखकर प्लान बदलने में उतनी ही देर लगी जितनी देर में केजरीवाल ने कांग्रेस से समर्थन ले लिया था।
“अब अपुन को नया प्लान मंगता था। ”
रिवालसर-मंडी मैं कर चुका था, और उसी राइड पर मैंने सीखा था की ज्यादा चढ़ाई पर साईकिल से नहीं पीठ से चलती है, जिसे ‘कोर स्ट्रेंथ’ भी कहा जाता है। तो रिवालसर से 10 किलोमीटर ऊपर है दुर्गापुर गाँव जहाँ जाने का मैंने प्लान बना लिया। आना-जाना कुल मिलाकर 62 किलोमीटर। इंडिट्रैम्प से ऑफलाइन कोचिंग लेकर ‘इंटरवल ट्रेनिंग’ शुरू कर दिया गया। आप अगर साइकिलिंग के शौक़ीन हैं तो आपको भी इंटरवल ट्रेनिंग करनी चाहिए – अधिक जानकारी के लिए यहाँ जाइये
किसी भी ट्रेक पर जाने से पहले मेरे पेट में आटोमेटिक दर्द शुरू हो जाता है, उसी तरह किसी भी साईकिल राइड पर जाने से पहले मेरे घुटनों में आटोमेटिक करेंट दौड़ने लगता है और कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे करेंट से घुटनों की कटोरी ही अलग हो जाएगी।पर जाना तो था ही, क्यूंकि इसी सड़क पर कलखर के पास धौलाधार-हिमालय का विहंगम दृश्य देखने को मिलता है। दूर पालमपुर की पहाड़ियों से लेकर कुल्लू-किन्नौर की चोटियां सब यहाँ से दिखाई पड़ती हैं। बीहड़ों के एक्सपर्ट श्रीमान अंशुल सोनी के अनुसार कोटगढ़ के सेब के बगीचे यहाँ कलखर से देखे जा सकते हैं।
रात 10 बजे अपना सामान पैक है: दो साइकिलिंग कच्छे (padded shorts), बड़ा कैमरा और सबसे बड़ा लेंस, 4 केले और 4 संतरे। सुबह उठते ही पैसे ढूंढ़ने लगा तो मिले नहीं, तहखानों में दबे हुए कुल-जमा 70 रूपये लेकर अपुन सुबह 7 बजे निकल गया।
सुबह निकलते ही धुंध से सामना होता है, इस धुंध में सड़क पर कुत्ते की तरह पड़े हुए कुत्ते पीछे पड़ गए हैं। ये वही कुत्ते हैं जो फ़टी हुई बोरियों और footmat के नीचे छुपते हैं पर अब इन सबको अपनी फौजी ट्रेनिंग याद आ चुकी है और सबका जोश हाई हो चुका है। जैसे-तैसे मैं इनसे बचकर आगे निकला। सब कुत्तों की पहचान मैं कर चुका हूँ और इनपर किसी दिन सर्जिकल स्ट्राइक ही होगी। अपने को 700 मीटर से चलना है और 1860 मीटर ऊंचाई तक जाना है। सड़क पक्की है पर जगह-जगह काम लगा हुआ है। सुबह-सुबह जितने भी कुत्ते मिले हैं, सब दूर से ही भौंकने लग पड़े हैं। ये साला, कबाड़ी वाले और MTB राइडर में कोई तो फर्क करो यार।
रिवालसर पहुँचने में लगे हैं तीन घंटे, यहाँ से दुर्गापुर है सात किलोमीटर। उससे भी ऊपर है नैना देवी मंदिर जहाँ से 360 डिग्री व्यू मिलेगा। कुल्लू-लाहौल की पहाड़ियां एक तरफ और दूसरी तरफ हमीरपुर-जाहु के मैदान। सड़क एकदम लद्दाख जैसी हो गयी है, गोल-गोल मोड़ और एकदम सीधी चढ़ाई। कुत्तों से छुटकारा मिला तो बंदर आ गए। सड़क पर बैठे बंदर हमले की ताक में है, ये साले हमला करेंगे तो भाग भी नहीं सकते। अपुन ‘हेड डाउन’ करके पैदल ही चलेगा। बंदरों के डर से मैं दो किलोमीटर पैदल ही चला आया।
दुर्गापुर मोड़ पर लिखा है दुर्गापुर-4 किलोमीटर और नैना देवी – 6 किलोमीटर। दुर्गापुर की और जंगल है, बंदरों की वहां रिजर्व बटालियन तैनात दिखाई पड़ रही है, उस तरफ जाना खतरे से खाली नहीं होगा।
अब अपुन को एक और नया प्लान मंगता था
और एकदम से दुर्गापुर का इरादा मैंने छोड़ दिया और अब नैना देवी की ओर बढ़ चला पर भारी चढ़ाई ने मेरे हौसले का ‘जन-लोकपाल’ जैसा हाल कर दिया। ऐसी चढ़ाई जिसपर गाड़ी की भी सांसें फूल जाएँ।
अब आती हैं झीलें, यहाँ कुछ बरसाती झीलें हैं, लोगों का कहना है 7 हैं, मेरा मानना है रिवालसर वाली को मिला कर 5 से ज्यादा नहीं हैं| झीलों के एकदम ऊपर गाँव बसे हुए हैं, सबसे पीछे वाली झील पर तो ‘कैम्पिंग सुविधा’ भी उपलब्ध है। बस यहीं से कमरतोड़ चढ़ाई शुरू होती है, यहीं पद्मसम्भव गुफाओं-कंदराओं में तपस्या कर बौद्ध धर्म का प्रचार करने निकले थे 8वीं सदी में। यहाँ से हिमालय का नजारा अद्भुत है।
झीलों के नाम हैं
कुंती सर
सुक्का सर
नील सर
और एक शायद बाबा बालक सर
एक जो नयी चीज मैंने सीखी है वो है, गूगलअर्थ की जगह ‘wikimapia ‘ प्रयोग में लाया जाए तो ज्यादा फायदा है, उस पर भी गूगल का मैप न लोड करके बिंग सर्च इंजन का मैप लोड किया जाए तो तस्वीर और डिटेल ज्यादा मिलती है।
खैर दुर्गापुर तो मैं जा नहीं पाया और नैना देवी मैं पहुँच नहीं पाया।
पर ये जो बरसाती झीलें हैं ये बरसात में लबालब भर जाती हैं तो यहाँ जाएंगे दोबारा बरसात में
बढ़िया लिखा गया है
apke vichaar hamse saaja karne ke liye dhanyawaad sirji….
nice article sir…