कुछ दिन पहले तीर्थन से पंकी सूद का मैसेज आया, “मेरे लिए दस किताब रख लेना, मेरा एक दोस्त एक रात में सत्तर पेज पढ़ गया, अब वो गुजरात ले जाएगा दस किताबें”
पंकी भाई तीन किताबें पहले ही मंगवा चुके थे और अब दस और? क्या ये कहीं ब्लैक मार्किट में तो नहीं जा रही मेरी विश्व-प्रसिद्ध किताब? ऐसा ख्याल सबसे पहले मेरे दिमाग में आया..
कुछ किताबें डाक से ही भेजनी पड़ती हैं, जबकि अधिकतर के लिए नेरचौक में कूरियर वाले रमेश भाई से मैंने सेटिंग कर रखी है, उनके दफ्तर में छोड़ जाओ और आगे का काम वो देख लेते हैं। पर डाक बाबुओं से पार पाना थोड़ा मुश्किल काम है। सबसे पहले – उनके पास दुनिया भर के काम सरकार ने दे रखे हैं – बिजली का बिल, रेल का टिकट, LED वाले बल्ब, जमा खाते, जन-धन और भी जाने क्या-क्या। सरकार का बस चले तो डाक-खाने और बैंक के कर्मचारियों से इलेक्शन कैम्पेनिंग भी करवा ले…
पर फिर भी, कभी-कभी डाक बाबू माहौल बना देते हैं, जैसे कि ये:
*लोकल डाक खाने में एक सीन*
डाक खाने में दो बुजुर्गवार बाबू, काउंटर के छेद वाली खिड़की से रिटायरमेंट की राह निहारते हुए, 25 किताबों का ढेर देख कर ऑलमोस्ट ढेर होते हुए मुझे कहते हैं।
सर ये किताबें आप कहीं और से स्पीड पोस्ट करवा लीजिये, नहीं तो यहां काम रुक जाएगा….
“पर सर जी, ये भी तो काम ही है”, मेरा कहना है?
जिस पर उनका कहना है कि पर ये काम थोड़ा भारी है , और लाइन रुक जाएगी….लाइन में सबसे आगे मैं हूँ और मेरे पीछे लाइन में चायवाला लड़का है जो पिछले कल के गिलास लेने आया है
वो दोनों मुझे पहले ही कह चुके हैं कि कल शनिवार है और कल 12 बजे तक ही डाक जाएगी और उससे पहले हमारे पास बहुत काम रहता है, तो आप मंडे को मत आना, मंगलवार को ही आना। इतनी लंबी प्लानिंग तो मोदी जी भी नहीं किये होंगे देश के लिए।
ये कहानी सुनाने का मेरा ‘ऑब्जेक्टिव’ क्या था? वो ये कि पंकी भाई एक बहुत ही ऑप्टिमिस्टिक बंदे हैं, मतलब की इतने कि जब मैंने उन्हें दस किताबें जो गुजरात जानी थी, उनका भारतीय डाक का ट्रैकिंग ID दिया तो उनका कहना था कि ” इसकी क्या जरूरत है, आपने कह दिया तो हो गया।”
जिस पर मेरा जवाब था कि मुझ पर भरोसा करो पर डाक बाबू पर नहीं, जिस पर उनका कहना था कि “हम लोगों को अपने सिस्टम पर भरोसा होना चाहिए”
जिस पर मैंने उनको, दरभंगा -शिमला-चुवाड़ी-बिलासपुर और रांची भेजी गयी स्पीड पोस्ट की स्लिप दिखाई – सबपे एक ही पिन कोड था। और क्यूंकि एक ही पिन कोड है तो आप उसे ऑनलाइन ट्रैक ही नहीं कर सकते।
कैसे करें भरोसा? 😀
तो शुरू करते हैं किताब लिखने से किताब छपने तक की कहानी, जिसे मैं थोड़ा-थोड़ा ‘सेंसर’ करके फेसबुक पर लिख ही चुका हूँ, पर बिना सेंसर के मजा ही कुछ और है।
किताब छपाई की कहानी शुरू होती है बद्दी (जिसे शास्त्रों में नर्क का प्रोटोटाइप कहा गया है) के एक प्राइवेट अस्पताल से जहाँ मैं अपने घुटने की दर्द से निजात पाने गया था। दर्द से निजात तो मिला नहीं, पर आर्थराइटिस ग्रेड-1 जरूर मिल गया। x -ray में दोनों घुटने की ‘ग्रीस’ खत्म होती दिख रही थी और मुझे उसी दिन से डिप्रेशन टाइप हो गया। नीरज जाट, जिसने अभी हाल ही में अपनी नार्थ-ईस्ट की यात्राओं पर ‘मेरा पूर्वोत्तर‘ नाम की गजब किताब लिखी है, ने घुटने के दर्द का हवाला देते हुए कहा, “चल नहीं सकते तो क्या हुआ, लिख तो सकते हो-लिख डालो किताब।”
और अपन ने भी वर्ल्ड-फेमस www.tarungoel.in साइट खोल कर अपनी किताब का खाका तैयार करना शुरू कर दिया।
सबसे पहला विचार आया, ” क्या मैं इतना घूमा भी हूँ कि एक किताब ही लिख डालूं? किन्नौर-कुल्लू-लाहौल कि पहाड़ियां तो मैंने देखी ही नहीं हैं, बड़ा भंगाल भी नहीं गया, पार्वती घाटी भी नहीं देखी, किताब कैसे लिख दूँ?”
फिर किताब लिखना एक बार फिर छोड़ दिया। फिर फेसबुक पर कुछ लोगों ने और एक प्रकाशक ने फिर से पतंग को ढील दी, “लिखो-लिखो, हम छापेंगे।” अबे जब हम लिखूंगा ही नहीं, तो तुम छापोगे कैसा बे?
जैसे-जैसे घुटने की दर्द बढ़ती गयी, किताब के पन्ने बढ़ते गए और अंततः 180 पेज की किताब तैयार हो गयी। सम्पादक महोदय नीरज जाट का कहना था इसको 220 पेज पर लाओ, 180 से 220 पेज तक ले जाने का मतलब था केरल में भाजपा की सरकार बनाना। पर अमित शाह के रहते कुछ भी हो सकता है, तो उसी को प्रेरणास्त्रोत मानते हुए 220 पेज हो ही गए। और किताब अपने सामने थी, अब दूसरा मसला था किताब का टाइटल। नवीन बोक्टापा के सौजन्य से इस किताब का नामकरण हुआ और जनसेवा में नूपुर सिंह और नीरज कल्याण ने इसका डिज़ाइन तैयार किया।
मैं चाहता था कि इस किताब में रिजुल गिल भूमिका लिखे, जिसके लिए उसने हाँ भी की पर जैसे एक सुबह वो लाहौल में हाँ कर के पलट गया था, वैसा ही पलटा उसने इस बार भी मारा और हाँ कर के गायब हो गया। आयुष कुमार ने इस किताब की बेहतरीन भूमिका लिखी है, जिसके लिए मैं आयुष का आभारी हूँ।
सेल्फ पब्लिशिंग VS प्रकाशक पब्लिशिंग
नीरज जाट की पहली दो किताबें प्रकाशक ने छापी हैं, जो आप यहाँ देख सकते हैं, पर प्रकाशक के छापने पर आपको कुछ पर्सेंटेज मिलेगा और सेल्फ-पब्लिशिंग में सारा माल आपका (+ सरदर्द और भागदौड़)
अब अपन कोई चेतन भगत तो है नहीं, कि पेंग्विन अपने को बीस लाख रुपया भी दे, रॉयल्टी भी दे और मार्केटिंग भी करे। यहाँ प्रकाशक मिलेगा हल्का और मार्केटिंग भी खुद करनी पड़ेगी, पर जब खुद ही करना है तो छपवा भी क्यों न खुद ही ली जाए – ऐसे विचार प्रकट करते हुए नीरज जाट ने मुझे अपनी किताब खुद पब्लिश करने के लिए मना लिया। हालांकि ‘तब’ मुझे समझ कुछ नहीं आया, पर जब इतना पढ़ा-लिखा आदमी कुछ कहे तो मान लेना चाहिए 😀
अब दूसरा मसला था दिल्ली में प्रिंटिंग वाले को ढूँढना। बड़े-बड़े प्रकाशकों की किताब उठा कर उनपर प्रिंटिंग वालों के एड्रेस ढूंढे गए – दस में आठ शाहदरा-गाजियाबाद- वेलकम-झिलमिल में छपी थीं। बस वैसा ही एक प्रिंटर हमने भी ढूंढ लिया – रिश्ता वही,दाम सही|
प्रूफ रीडिंग-अशुद्धि संशोधन
अपना लिखा आदमी एक बार पढ़ सकता है, दो बार पढ़ सकता है – उसके बाद गलतियां निकलनी असम्भव हैं। तीसरी बार पढ़ने पर शर्म के मारे डिलीट बटन भी दब जाता है – और वैसे भी मेरे जैसा आदमी जो केजरीवाल से इतना प्रभावित हो, वो गलती कर ही नहीं सकता। इसलिए प्रूफ रीडिंग का जिम्मा तीन लोगों की दिया गया – मेरी बड़ी बहन नीरज गुप्ता को, रोहित कल्याणा को और कमल प्रीत को।
इन सबने मिलकर 220 पेज की किताब में 2 क्विंटल गलतियां निकाल दीं, अंततः किताब जब नीरज जाट के पास पहुँची तब तक इसमें इतनी ही गलतियां और जुड़ गईं। निस्वार्थ भावना से नीरज ने सब गलतियां सुधारीं और अब अगला स्टेप था प्रिंटर के पास जाना। प्रिंटर के पास किताब गयी, और छपते-छपते महीना लग गया। इतनी किताबें लाएंगे कैसे? दिल्ली से ही सुमीत ग्रोवर जी ने ट्रांसपोर्ट में भिजवाई जिसके लिए मैं उनका एहसानमंद रहूँगा। नहीं तो दिल्ली आने-जाने में ही प्रति ट्रिप के हिसाब से मेरा 2 किलो वजन काम हो जाता है, ये जानकारी हमें नीति आयोग की रिसर्च से पता चलती है….
प्री-बुकिंग में जनता ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, हालांकि जितने बधाई संदेश आए, उसी अनुपात में अगर प्री-ऑर्डर आ जाते तो अगली साल IPL में चेन्नई सुपर किंग टीम का मालिक मैं होता।
क्रिटिकल रिव्यू
एक लेखक के लिए क्रिटिकल रिव्यू बहुत जरुरी हैं, ‘सो दैट’ अ) लेखक अगले एडिशन या नयी किताब में भूल सुधर कर सके और ब) ज्यादा क्रिटिकल होने वाले बन्दे को ब्लॉक कर सके 😀
अब तक दो ही क्रिटिकल रिव्यू मुझ तक पहुंचे हैं, जिनमे से एक इनडायरेक्ट रिव्यू है जिसमे पाठक का कहना है कि किताब जल्दी खत्म हो गयी और कहानियां धाराप्रवाह नहीं हैं – जिसका जवाब ये है कि मेरे पास 220 पेज का ही सामान था जो मैंने सारा लिख दिया। और रही दूसरी बात, तो कहानियां जैसे-जैसे घटित हुईं, मैं वैसे लिखता गया।
दूसरा रिव्यू है कि हिमाचल में जातिवाद नहीं है, उत्तर प्रदेश और बिहार के जैसे तो बिलकुल भी नहीं इसलिए लेखक ने अन्यथा ही हिमाचल प्रदेश का जातिवादी दिखाने की कोशिश की है।
इसका मेरे पास एक ही जवाब है –
*जो-जो देवता का बाजा बजाएगा
उसे श्राप है कि वो देवता को छू नहीं पाएगा*
आप चाहें तो उत्तर प्रदेश या बिहार जैसा जातिवाद न होने पर खुश हो सकते हैं, लेकिन ये वही बात होगी कि देखिये हम पाकिस्तान के साथ अंग्रेजों से आजाद हुए थे, और आज हम कहाँ है और पाकिस्तान कहाँ?
बिहार-उत्तर प्रदेश से तुलना बिलकुल पाकिस्तान से तुलना करने जैसा है।
मुझे डाक्टर खन्ना को ये किताब देते हुए सबसे ज्यादा ख़ुशी हुई और जब इन्होने एक रात में ये किताब खत्म कर डाली और मुझे दस में आठ नंबर दिए, तो और भी ज्यादा मजा आया। डाक्टर खन्ना इन्द्रू नाग लाइब्रेरी के कर्ता-धर्ता हैं और उन्हें ये किताब पसंद आना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है
अभी हाल ही में भारतीय पोस्ट नए ‘सर्वर’ पर ‘माइग्रेट’ हुई है, इसलिए डाक-बाबू कभी सर्वर खराब और कभी पेट खराब जैसे बहाने बना कर पार्कल/स्पीडपोस्ट नहीं कर पा रहे हैं।
दस लोगों कि किताबें डाक से भेजी जानी हैं पर असुविधा के लिए खेद है….
जिस-जिस को मुफ्त में पढ़नी हो, वो इन्द्रू नाग लाइब्रेरी धर्मशाला में जाकर डाक्टर खन्ना के साथ बैठ कर पढ़ सकता है।
अब मेरे पास कुल मिला कर 5 किताब बची है, किताब जल्दी ही रीप्रिंट में जानी है, जिस-जिस को पढ़नी हो-वो यहाँ से अपनी प्रति ‘प्री-बुक’ कर सकते हैं – Click To Pre Book On InstaMojo
I’d to order it earlier, but thanks for the new post (acted like a kick), Done it now.
Good post, as usual.
I need this book sir.
I’ve sent an email. Please check
Boom Such Mai Bahut Jaldi Puri Ho Gyi