चंदेरी भारी मन से छूट गया, काफी कुछ देखने को रह गया। ग्वालियर की बस 11 बजे जाती है, तो 11 बजे बस अड्डे पे गहमा गहमी है, बस कहाँ जा रही है ये पता नहीं चलता लेकिन ग्वालियर तो बिलकुल नहीं जा रही, ये कन्फर्म है।
पहला पड़ाव– चंदेरी | तीसरा पड़ाव- बाटेसर
कंडक्टर कहता है , “आपको ग्वालियर की बस में बैठा देंगे, आप आइये तो, भरोसा रखिये।” मेरे लिए मध्य प्रदेश में भरोसा रखना आसान है, हम बैठ लिए। वापिस ललितपुर जाने से तो अच्छा है कि चाहे यूगांडा की बस में बैठ जाओ, और ये तो फिर ग्वालियर की दिशा में जा रही है।
रस्ते में झाड़ियों के बीच कभी किला दीखता है तो कभी जर्जर अवस्था में अंतिम सांसें गिन रहे मंदिर। चम्बल नदी पार करेंगे, ऐसा अनुमान है, लेकिन चम्बल तो राजस्थान बॉर्डर पे कहीं बहती है। बस दो घण्टे में 50-60 किलोमीटर चली। फिर एक बस स्टैंड पे जा रुकी। ड्राईवर-कंडक्टर बस रुकते ही गायब।
ये ग्वालियर है? लगता तो नहीं। दूर से एक आदमी आया, पीछे से अपना कंडक्टर भी निकला, आप इसमें बैठ जाओ, ये ग्वालियर जाएगी।
भारी भरकम बैग के साथ बस बदलना आसान काम नही होता और खासकर तब जब बस बोल कर के आपको ‘मिनी बस’ में बिठा दिया जाए। अब हल्की झड़प हुई, हमारा कंडक्टर थोड़ा झेंप गया, लेकिन जाना तो है ही। मिनी बस में बैठ लिए, ये बस भी ग्वालियर नहीं जा रही, ये भी कन्फर्म हो गया।
ग्वालियर जा क्यों रहे हैं? मोरेना जाने के लिए। मोरेना क्यों जा रहे हैं? चौसठ योगिनी का मंदिर देखने के लिए। मिनी बस और लंबी टांग एक ‘डेडली कॉम्बिनेशन’ है लेकिन ‘मिनी बस’ की भीड़ में एक फायदा हुआ की अब लोगों ने गिनाना शुरू किया। झाँसी जाइये, दतिया जाइये, ओरछा जाइये, जाते जाइये, रुकिए मत। मध्य प्रदेश है, अगर रुकने का मन भी करे तो जहाँ रुकेंगे वहां भी किले तलाब मिल जाएंगे। एक अंकिल ने टूटी फूटी अंग्रेजी में झाँसी से ओरछा तक का पूरा ब्यौरा दे दिया, ” यहाँ से ऑटो मिलेगा, वहां से बस। बस में इतना किराया, ऑटो में इतना। शेयर ऑटो लेना, सस्ते में पहुँच जाओगे। मिट्टी लाल रहेगी, पान से नहीं ‘नेचुरली रेड’|”
एक बारगी तो यूं लगा की अंकिल बिदेस घूम के आये हैं और गाँव वालों को अपनी शब्दों की नाव में बिदेस घुमा रहे हैं। अच्छा लगा, लेकिन यही सब अगर मेरे रिश्तेदार होते तो बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता।
ओरछा सुनने में अच्छा लगा, देखने में कैसा होगा? सुना सुना सा लगा? पंडित जी ने कहा था, “ओरछा कभी खत्म नहीं होता, चाहे पैदल घूम लो या हैलीकॉप्टर में|”
अब तो ओरछा जाएंगे, पंडित जी ने कहा है, जाना ही पड़ेगा। अब हम दतिया का टिकट लेके ओरछा जा रहे हैं। आधे रस्ते में उतर लिए, उतरते हुए एक दूसरे अंकिल बोल पड़े, “दतिया का टिकेट लिए हो तो दतिया चले ही जाइये न|” अच्छा हुआ यूगांडा का टिकट नही लिया था, नहीं तो अंकिल तो रूठ ही जाते। दतिया का पूरा किराया दिए थे, पैसे वापिस न मांगने पर पूरी बस के यात्री काफी नाराज दिखे, अच्छा हुआ आधे रस्ते में उतरने का चालान नहीं होता ।
झांसी जाएंगे, कैसे जाएंगे, ऑटो से। वहां से ओरछा जाएंगे, कैसे जाएंगे, ऑटो से। ऑटो चौड़ी सड़क पे लाल मिट्टी के खेतों को पीछे छोड़ता हुआ भागता है, ऑटो में 12 लोग बैठे हैं, कौन किसकी गोद में बैठा है मालूम नहीं हो पा रहा। मेरी एक टांग ऑटो से बाहर है, सामने बैठी अम्माँ जी कहती हैं अंदर कर लो नहीं तो एक ही रहेगी। मैं भी हंसते हुए कहता हूँ, दो हैं, एक से भी काम चल ही जाएगा। यहाँ झाँसी ओरछा में इतने ऑटो चलते हैं की इसे अगर देश की ‘ऑटो राजधानी’ बना कर मोदी जी 2019 चुनाव से पहले ‘वाइब्रेंट ओरछा समिट‘ करवा दें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी |
ओरछा आ गया, सामने मंदिर है, वृहद-विशालकाय-विहंगम। अद्भुत नज़ारा। पीछे किला है, दूर पहाड़ी पे एक और मंदिर है, और उसके पीछे एक और मंदिर सा कुछ। दाएं देखो-बाएं देखो, मंदिर किले, हर तरफ हिमालय सा नजारा। ऊँचे पर्बतों को यहाँ मंदिरों ने ‘रिप्लेस’ कर दिया है। बेतवा नदी भी चंदेरी से साथ साथ ओरछा आ गयी, और साथ में बह के आती मिट्टी का रंग भी बदल गया है। हल्की बजरी से मिली हुई रेत में, जैसे चन्देरी के दुर्गों के पत्थर घुल के ओरछा के मंदिर देखने आते हों।
ओरछा का हर महल, हर किला, हर मंदिर, मंदिर पे उकेरी हुई आकृति प्रेम है। बचपन का पहला प्रेम। बस देखते ही दिल धक से रूक जाए और कलेजा सीधा मुहं में। जिस ओर देखो, उस ओर अविरल प्रेम की धारा बहे जा रही है।
बुंदेला राजाओं के नेतृत्व में 16वीं शताब्दी में ये अद्भुत शहर, शहर क्या कलाकृति जन्मी। इसे देख के ध्यान आता है कि पुराने लोग जानते थे काम का हुनर। य्ये बड़ी बड़ी इमारतें, उनसे भी बड़े मंदिर, और उनसे भी बड़े इन इमारतों को बनाने वाले।
लेकिन इनसे भी बड़े कुछ लोग हैं। जानते हैं कौन? राहुल और सोनिया, राजू और प्रिया, रमेस और कजरी। ये वो लोग हैं जो इन दिल धड़का देने वाले मंदिरों के बेहद सुंदर दरवाजों पे, दीवारों पे, यहाँ तक की 100-50 फुट ऊँची दीवारों पे ‘सफ़ेद पेंट’ से ‘I lave you Sonia’ लिख गए हैं।
जब कभी बेवकूफी का ओलम्पिक होगा, उसमे 200 मीटर की रेस में ‘Educated Indian’ सीधी दौड़ में उल्टा भाग के भी पहला पुरस्कार पाएगा।
मैं नदी के पास बैठता हूँ, बड़े बड़े महलों से धूप टकराती है और चकनाचूर होके सैंकड़ों साल पुराने पत्थर को केसरिया रंग देती है, वही रंग नदी में घुलता है और ‘अकड़े हुए से किले और महल’ पानी में ढलते सूरज के साथ अदृश्य हो जाते हैं |
पहाड़ी पे सन्तोषी माता का मंदिर है, मंदिर के बाहर से जगमगाता हुआ ओरछा दीखता है| रायगढ़(छत्तीसगढ़) से प्रकाश यादव जी का फोन आता है, मैं कहता हूँ ओरछा दीखता है यहाँ से, वो कहते हैं लक्ष्मी नारायण मंदिर जाओ वहां से दिखेगा| मैं पूछता हूँ वो कहाँ है, वो कहते हैं पीछे देखो, पीछे एक टिमटिमाता हुआ बड़ा सा भवन दीखता है, जाना पड़ेगा|
अब एक दिन और लगेगा, जहाँ जाना ही नहीं था, वहां अब दूसरा दिन लगेगा| सुबह उठते ही लक्ष्मी नारायण मंदिर की ओर चल दिए, फिर वही समस्या – धुंध-अंधाधुंध| मन्दिर में भित्ति चित्र हैं, उसपे भी ‘राज-सोनिया’ के अमर प्रेम की गाथाएं छपी हुई हैं| कभी कभी तो मैं सोच में पड़ जाता हूँ – ये ‘राज-सोनिया’ का प्रेम सफल हुआ होगा या नहीं? क्या ये वही ‘राज-सोनिया’ हैं जिनकी प्रेम गाथाएं मैं ‘मणिमहेश की चट्टानों‘ और ‘हिमानी चामुंडा की सोलर लाइटों’ पे पढ़ आया हूँ?
मन्दिर ऊंचाई पे है, धुंध का साम्राज्य हटने की प्रतीक्षा में बैठे हैं| दूर महलों की छतरियां धुंध से लड़ रही हैं, और सूरज अनमना सा आसमान में उठ रहा है| नीचे भित्ति चित्रों की सफाई चल रही है, दीवारों पे ‘खचर खचर’ की आवाज़ से ‘राज सोनिया’ के प्रेम के कच्चे धागे तार-तार किये जा रहे हैं | पहली बार ASI वालों के काम पे गर्व महसूस हुआ | भित्ति चित्र एकदम नए से लगते हैं| दीवारों पे छपी हुई राम-कृष्ण की कहानियां एक बार फिर से जीवित सी होती हुई दिखती हैं |
एक घण्टा बैठते हैं, दो बीत जाते हैं, धुंध नहीं छंटती| अब जहांगीर महल देखने की इच्छा है नहीं, दूर से ही महल देखता हूँ, बहुत भीड़ है, कुम्भलगढ़ में भी बहुत भीड़ थी-छोटे छोटे बच्चे इधर उधर भागते हुए, शोर मचाते हुए, ऐसा लगता था महाराणा प्रताप को फिर तलवार उठानी पड़ेगी| यहाँ जहांगीर महल में ‘जहांगीर’ जाग गया तो ओरछा से निकलने का भी ‘जजिया’ देना पड़ेगा|
एक बार फिर शाम होती नहीं, ‘क़्वार्टर’ ढूंढता हूँ – आज 31 दिसम्बर है पर यहाँ तो रम के नाम पे ‘ब्लू डायमंड’ बिक रही है, जानलेवा काम जान पड़ता है, ‘आईडिया ड्राप’ करता हूँ|
अब सोते सोते यही हिसाब लगाता हूँ कि कल निकला जाए या रुका जाए, रुकने के बाद भी सब तो न देख पाऊंगा| सुबह घनी धुंध में निकलते हैं, फिर से झाँसी, झाँसी से ट्रेन है ग्वालियर के लिए | ये वही ट्रेन है जिसका पहले कन्फर्म टिकट कैंसिल किया था, अब उसी ट्रेन में फिर से जाना है |
ट्रेन तीन घण्टा लेट है, मोदी जी टीवी-रेडियो पे अपने मन की बात अपने आप से कर रहे हैं| ‘ट्रेन अनाउंसमेंट’ वाली आंटी कह रही रही है, हमें खेद है |
वाह !ओरछा देखने का एक अलग नजरिया । फोन तो मैंने भी लगाया था, वो भी ओरछा से ही । पर आप मोबाइल होटल में छोड़ आए । खैर अगली बार के लिए बेसब्री से इंतजार रहेगा ।
Very well written and lovely photographs.
I was in Orccha last month, place is peaceful and people are simple.
Thanks Sapna. Indeed Orchha is a beautiful place. One needs ample time to explore this place properly.
पाण्डेय जी आपसे नहीं मिल पाए इसका खेद तो है , उम्मीद है फिर मुलाकात होगी जरूर
Stirring stories with beautiful anaps.i’ve just decided right now that I should come to himachal and have a scintillating experience.i am planning for March 1st week.which one would be the best winter trek at that time? Triund? Parashar? Or can u suggest any other place?
Thanks Sandy for your comment but this post isn’t about Himachal. Anyway, for 1st March, Triund would be just fine. Just e prepared for lots of snow….Train hard because walking on snow isn’t as romantic as it looks in photographs.
For me, it is a ‘Love at first sight’ with your writing kind of thing. First Chanderi and now Orchha. If India is incredible, it is because of travel bloggers like you!!
Great Piece Of Information. Please refer to the following link to find out the history and facts of Himachali Temples:-
http://www.himachali.in/category/temples-himachal-pradesh/