2013 में बोहार पास की यात्रा की गयी | दलेर सिंह, जो की भरमौर के गद्दी हैं, उनके डेरे में रुकना हुआ | मेरे मित्र रिजुल और पंडित जी की खूब जोड़ी जमी उनसे और पूरी रात बातचीत चलती रही | बातों बातों में पता चला की बारह में सिर्फ दो या तीन महीने वो घर पे बिताते हैं, बाकी समय पहाड़ों में तो कभी मैदानों में |
पंडित जी ने सवाल दागा, “कहाँ के मैदानों में?”
जवाब आया , “कांगड़ा-चम्बा नि छुट्दा असां ते, इन्दोरै बोहंदे जाइने |” (काँगड़ा -चम्बा नहीं छूटता हमसे बच्चे, इंदौरा में लगता है डेरा)
जाते जाते पंडित जी दो वादे कर गए, एक तो आपको मिलने जरूर आएँगे, दूसरा आपका फोटो आपको भेजेंगे प्रिंट करके| इसीलिए दलेर सिंह को ढूंढता हुआ मैं दोस्त सौरभ के साथ पहुँच गया इंदौरा|
इंदौरा एक छोटा सा गाँव है, काँगड़ा-पठानकोट के बॉर्डर पे|इंदौरा (काठगढ़) के एक तरफ ब्यास (पौंग डैम) तो दूसरी तरफ रावी बहती है| और बीच में है एक बड़ा सा मैदान, कहते हैं सिकंदर और पोरस की लड़ाई इसी मैदान में हुई थी और यहीं से सिकंदर भारत छोड़ के वापिस मुड़ने पे विवश हो गया था|
बस यहीं काठगढ़ के मैदानों से शुरू होके पूरे इंदौरा के जंगलों में गद्दियों का सर्दियों का जमावड़ा रहता है| कभी आप इन्द्राहार, तालंग, तोरल, या धौलाधार के ‘प्राइमरी एक्सिस’ के किसी भी ‘पास’ पे खड़े हो जाएँ, आपको नीचे शाहपुर-जवाली और पौंग डैम तक के दर्शन हो जाएंगे और वैसे ही इन मैदानों से (साफ़ मौसम होने पर) आपको धौलाधार के प्राइमरी एक्सिस पे सारे ‘पास’ दिख जाएंगे|

The White Mountain Range
बाएं से दायें: बलैनी जोत, मिणकियानी जोत, गज पास, भीमघसुतड़ी पास, इन्द्राहार जोत, कुंडली पास, तोरल पास, तालंग पास
दलेर सिंह की खोज शुरू हुई इंदौरा से| इंदौरा से काठगढ़ है छह किलोमीटर, सड़क ऐसी मानो मौत का कुआं हो | मंदिर तक पहुचने में कोई भी गद्दी का डेरा नहीं मिला| काठगढ़ के मैदान में भी कोई डेरा नहीं दिखा | वहां से वापिस हुए, और इंदौरा होते हुए इंदपुर पहुंचे | वहां एक छोटा सा ‘गद्दी ट्रेडमार्क’ डेरा दिखा| एक पतला सा तिरपाल, दो बांस के डंडों पे टिका हुआ, और पहरेदारी के लिए एक छोटा सा कुत्ता|
आस पास पूछताछ की तो मालूम पड़ा की अभी तो सब गद्दी जंगल में होंगे, शाम छह बजे तक ही वापिस आएँगे | और आगे बढे, तो दूर सड़क से नीचे नाले में पत्थरों के बीच हलचल दिखाई दी|
तुरंत सौरभ को स्कूटर साइड लगाने को कहा| काफी देर हो-हल्ला मचाया तो एक गद्दी सड़क पे निकला|
नाम नरेश, उम्र 25 या 26 साल | गर्मियों में बोहार जोत से चढ़ाई और कुगति जोत लांघ के लाहौल में डेरा|
बलेनी और बोहार जोत से जाने वाले कुगति और कालीचो जोत लांघते हैं| वहीँ इन्द्राहार या कुंडली से जाने वाले चोबिया जोत लांघ का लाहौल जाते हैं| जिया-पालमपुर के गद्दी कुगति और तालंग जोत लांघ कर वापिस आते हैं, लेकिन लाहौल जाने के लिए वो सड़क मार्ग से रोहतांग दर्रा लांघ कर लाहौल जाते हैं|
लेकिन ये सब सर्दियाँ इन्दौर के मैदानों और जंगलों में काटते हैं| यानी की कम से कम ‘बीस डेरे’ इंदौरा के जंगलों में|
बातचीत हुई तो मालूम पड़ा की दलेर सिंह जी भी इंदपुर में ही विराजमान हैं, बस सड़क से थोड़ी दूर, यही कोई पांच किलोमीटर| सौरभ का कहना था की भेड़ों के साथ साथ जंगल में उतर चलते हैं दलेर सिंह की खोज में, लेकिन मैंने मना कर दिया| उनसे मिलेंगे तो ‘प्रिंट फोटो’ साथ लाएंगे|
नरेश से विदा ली तो आगे अजय कुमार मिल गए|
नाम अजय, उम्र 27 साल, बलैनी जोत से चढ़ाई कर के काली छो लांघ के त्रिलोकीनाथ में डेरा|

Naresh and Ajay
अजय कुमार की पानी की ड्यूटी थी| हमने लिफ्ट की पेशकश की तो अजय का कहना था की आदत बनी रहनी चाहिए चलने की, और हँसते हुए डब्बे उठा के चल दिए|
अजय कुमार से विदा ली तो आगे सड़क के बिलकुल साथ वाले डेरे में हलचल शुरू हो गयी थी| इक्का दुक्का भेड़ें डेरे में घूम रही थी, और दूर पहाड़ी पे दो लोग भेड़ों को हांकते हुए आ रहे थे|
मुंशी राम और उनकी बीवी| गद्दी डेरों पे महिलाएं कम ही दिखती हैं, लेकिन यहाँ मुंशी राम का साथी बीमार था और इसीलिए उनकी बीवी उनका साथ देने के लिए भरमौर से इंदौरा आई हुई थी|
मुंशी राम, उम्र 52 साल, करेरी गाँव के रहने वाले| मिनकियानी चढ़ के कुगति जोत लांघ कर लाहौल में डेरा|

Indpur Dera, Indora

Indpur Dera, Indora
मुंशी राम पहली बार जब पहाड़ों में आये तब सिर्फ छह साल के थे, साल 1969 में|
आज उनके दो लड़के, एक डिप्लोमा मैकेनिकल लेकिन बेरोजगार| मुंशी राम का लड़का कहता है की भेड़ें बेच दो और मनरेगा में नौकरी कर लो| मुंशी राम का कहना है की पूरी उम्र अपनी मर्जी का काम किया, अब मजदूरी कैसे करूँगा इस उम्र में| मुंशी राम की बीवी का कहना है की जैसे हैं वैसे ही ठीक हैं| थोड़ा कमाया, थोड़ा खाया, और क्या चाहिए
मुझे लगता है ये अपनी मन मर्जी का काम करना साला सभी के लिए मुश्किल है| किसी को सरकार नहीं जीने देती, किसी को कंपनी, तो किसी को औलाद| लेकिन जो मजा अपने मन की करने में है, वो और कहाँ| कहते हैं गद्दियों को शंकर का वरदान प्राप्त है और जैसा कठिन जीवन ये जीते हैं, और फिर भी मस्त रहते हैं, सही में लगता है की ये भोले के ही ‘भोले भक्त’ हैं|
इसी बीच मुंशी राम जी ने लकड़ी पे आग सुलगा दी और चाय की तयारी शुरू कर दी|
“ट्रैकिंग करदे तां खंड तां जादा ही पींदे होणे?” (ट्रेकिंग करते हो फिर तो चीनी ज्यादा ही लोगे?)
शाम के आठ बज रहे थे लेकिन मैं मना नहीं कर पाया

Munshi Ram with his wife
दलेर सिंह का पता मिल गया, अब पंडित जी का लिया हुआ फोटो उन तक पहुँचाना बाकी है |
बहुत उम्मदा । लगता है मुझे भी बहुत जल्द किसी डेरे में जाना चाहिए ।
Bahut Achha likha hai sir, aap ne, jab me 13-14 saal ka tha tab ye hmare village me ate the, Ab b ate hai muje bahut psand hai inki life
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