डाडासीबा एक छोटा सा गाँव है काँगड़ा डिस्ट्रिक्ट में, और वहां के बाशिंदे कहते हैं कि पूरी दुनिया डेवेलप हो जाएगी, पर डाडासीबा का कुछ नहीं हो सकता, देख के तो यही लगा कि सच ही कहते हैं | डाडासीबा पहुंचना हो तो जवालाजी से निकल जाओ देहरा कि तरफ और वहां से तलवाड़ा रोड पे निकल लो, किसी भी माईल स्टोन पे डाडासीबा नहीं लिखा होगा, पर घबराने कि जरुरत नहीं है सीधी सड़क है, चलते जाओ, डाडासीबा जब आएगा तो पता चल जाएगा | जब ये बता पाना मुश्किल हो जाए कि सड़क में खड्ड आ गयी या खड्ड में सड़क बना दी गयी है , तो समझ लो कि डाडासीबा आ गया | पर कुछ अच्छा पाना हो तो कष्ट भोगने ही पड़ते हैं, तो जैसे ही डाडासीबा पहुँचो आपको दिखता है महाराजा रणजीत सागर डैम, जिसके ऊपर पौंग डैम बना हुआ है | जिन लोगों ने मुंबई देखा हुआ है उनको लगता है कि मुंबई का बीच आ गया और जिन्होंने नहीं देखा हो, उनको लगता है कि मुंबई ऐसा ही होगा|
दूर दूर तक देख लो, पानी ही दिखेगा, जमीन नहीं दिखती, आसमान और जमीन में फरक नहीं दिखता| हम जब पहुंचे तो सूरज ढल चुका था, पानी सुनहरे रंग का हो चुका था और दूर पानी में मछली पकड़ने वाला जाल फेंक और खींच रहा था | मेरे ज़हन में सिर्फ एक आवाज़ गूँज रही थी ” डा डा सिबा ” | जगह का नाम और आँखों के सामने का नजारा बिलकुल राज कॉमिक्स कि कहानियों का कोई गाँव लग रहा था | वहां कैम्पिंग और बोन-फायर करने का बड़ा आनंद आएगा , मछली पकड़ने की कला आती हो तो वहीँ पकड़ो, भूनो और ओल्ड मोंक के साथ खा जाओ|
डाडासीबा से निकले हम एक और बचपन कि याद को ताज़ा करने, आशापुरी मंदिर, वहां से कहते हैं किस्मत वाले दिन सारा हमीरपुर, बिलासपुर, और रंजित सागर दिखता है, पर अपनी किस्मत हमेशा अगले कल ही आती है सो वैसा ही उस दिन हुआ | दिन दोपहर में पहुँच गए आशापुरी लेकिन आसमान में बादल थे तो कुछ नहीं दिखाई दिया, बस ब्यास नदी दिख रही थी पहाड़ियों को काटती हुई | आशापुरी का मंदिर पहाड़ी कि चोटी पे है और ये मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कि प्रोपर्टी है | सुनिए इस मंदिर कि कुछ विशेषताएं :
कहते हैं ये मंदिर बैजनाथ के प्रसिद्द शिव मंदिर के साथ का बना हुआ है | यहाँ रहने के लिए कोई सराय/धरमशाला नहीं है लेकिन वहां लोगों कि दुकानों में रहा जा सकता है | दूर दूर से लोग आते हैं यहाँ क्यूंकि यहाँ काफी लोगों कि कुलदेवी है, शिमला, नालागढ़, बरोटीवाला, सोलन, ये कुलदेवी सेलेक्ट कैसे होती है ये नहीं पता पर पहुँच बड़ी है इस मंदिर की| अन्दर किसी ब्रिटिश महाराजा के दो सिक्के (coins) गड़े हुए हैं, पुजारी परिवार की मानें तो अंग्रेजों ने इस मंदिर में स्वयम्भू पिंडी को तोड़ने के लिए सिपाही भेजे, सिपाहियों ने भरपूर जोर आजमाइश की लेकिन पिंडी नहीं उखड़ी, हाँ पिंडी के नीचे से मधुमखियाँ निकली, जिन्होंने सैनिकों को मार भगाया | फिर तबसे ब्रिटिश लोग भी मंदिर की महिमा को मानने लगे, कितना सच-कितना झूठ इसपे गौर न करें तो स्टोरी काफी इंटरेस्टिंग है | समय के साथ ये मंदिर विखंडित होने लग पड़ा और रही सही कसर पुरातत्व विभाग ने पूरी कर दी, मंदिर की नक्काशी की हुई छत पे कंक्रीट चढ़ा दिया गया है और अब ये मंदिर पुराना कम और कम पैसे लेके घटिया ठेकेदार से बनवाया हुआ ज्यादा लगता है |
वहां पहुँच के मेरे दिल को बड़ा सुकून मिला, और मेरे दोस्त के हिसाब से वहां कोई प्राचीन मंदिर जरुर होगा क्यूंकि वहां से एक बस चलती है कटड़ा (जम्मू) के लिए, कहने का मतलब ये है कि जिन छोटे छोटे गाँवों से जम्मू-कटड़ा-वैष्णो देवी के लिए बसें चलती हैं, वहां एक सौ प्रतिशत या तो कोई मंदिर होता है, ये रिलीजियस सिग्निफिकेंस होता है, खैर अँधेरा हो चुका था तो मंदिर तो हम नहीं ढूंढ पाए , और कैमरा की बेट्री भी जीरो हो चुकी थी तो न पुल का फोटो खींच पाए और न ही जगहों का, पर यकीन मानिये जब ब्यास का बेसिन दीखता है और ढलता सूरज पूरे आसमान को सुनहरा बना देता है तो ऐसा लगता है जैसे अलिफ़ लैला की कहानियों का कोई गाँव है|
P.S: तीसरा रूट है घोडिध्वीरी-दिल्ली, जगह का नाम सुनके लगता है मुग़लों की सल्तनत का कोई गाँव हो, जगह का पता चलते ही वहां भी जाया जाएगा |
Really liked this post about some unknown places. Thanks for sharing.