जोरू का ग़ुलाम

तुम किचन में क्यूँ खड़े थे? कुछ तो ख्याल करो , मर्द हो, मर्दों को ये सब शोभा नहीं देता |
माँ चाय ही तो बनायीं मैंने, इसमें बुराई क्या है?
तो चाय तुम्हारी बीवी नहीं बना सकती थी?
वो थकी हुई थी माँ , आपको भी पता है ऑफिस में थी वो सुबह से, अकेली कहाँ कहाँ जान देगी वो ?बेटा मेरी थकान तो कभी नहीं दिखी तुम्हें| मैंने तुम्हें इतने नाज़ों से पाला पर मेरी थकान तो तुम्हें कभी नहीं दिखी|कमरे में सन्नाटा छा गया | माँ और बेटा एक दूसरे से नजरें नहीं मिला रहे थे |

पड़ोस की बूढ़ी अम्मा बाहर दरवाजे पे खड़ी थी,  यश के चेहरे पे खीझ देख के उसे सारा माजरा समझ आ गया, हाथ पकड़ के वो यश की माँ को अन्दर ले गयी|

वो बूढ़ी अम्मा उनके घर के बगल में रहती थी, कोई बीस साल से , और वो एक खुशहाल घर को नरक में तबदील होते देख रही थी| जबसे यश की शादी हुई थी , यश की माँ को यश के बर्ताव में कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था| सुबह की चाय यश बनाता था, रात को भी किचन में खड़ा मिलता था | बस इसी सब से यश की माँ को दिक्कत थी, की शादी के पहले तो कभी लड़के से काम नहीं करवाया, अब जब शादी हो गयी तो लड़का एकदम से घरेलू  हो गया है, ये सोच सोच के उसका खून जलता रहता था, रही सही कसर पड़ोस की औरतें पूरी कर दिया करतीं थीं|

उस बूढ़ी अम्मा को काफी पहले ही ये आभास हो गया था की जो अब हो रहा था इस घर में उसे पूरा यकीन था की एक दिन ये जरुर होगा | इस घर में उसने अजीब सा हिसाब देखा था और उसने उम्मीद नहीं की थी की पढ़े लिखे लोगों के घर में ऐसा होता होगा | बच्चे स्कूल से आयेंगे तो लड़का कपड़े दरवाजे पे ही खोल देगे, खाना खाएगा तो माँ जूठी प्लेट तक उठा के किचन में रखेगी | लड़की को पूरा सलीका सिखाया था उन्होंने , खाना बनाना , कपड़े धोना, बर्तन धोना | कोई मेहमान आये घर में तो पानी पिलाने से लेकर खाना बनाने का सारी ड्यूटी लड़की की थी, ऑटोमेटिक मोड में बिना किसीके कुछ भी कहे | लड़का बैठता था भरी महफ़िल में, उसके गुणगान किये जाते थे, पढने में अच्छा था, पढने में तो लड़की भी ठीक थी, पर लड़कियों के टैलेंट को तौलने का पैमाना हमेशा से ही अलग रहा है |

बूढ़ी अम्मा समझाती भी थी की लड़के को भी काम सिखाओ, अब ज़माना बदल गया है, लड़की अगर बाहर का काम करती है तो लड़के को भी घर का काम आना चाहिए, और कम से कम खुद का काम तो आना ही चाहिए | पर अनपढ़ों को अक्सर बेवकूफ भी मान लिया जाता है, तो बूढ़ी अम्मा की बात पे किसी ने गौर नहीं फ़रमाया |

अब अगर किसीको आप बचपन से पानी की जगह दूध ही पिलाओ, या स्पून ब्रेस्ट फीड ही करते जाओ तो आदत तो लग ही जाएगी |अब किसीके कच्छे भी माँ या बेहेन ही  धोये तो उसको काहे की आग लगी है जो अपना काम खुद कर ले, बस वही यश के साथ हुआ, उसको आदत लग गयी, सिर्फ पढने की और अपना काम ना करने की | सिर्फ पढने से ही देश चलता होता तो क्या बात थी |

जब पढ़ी लिखी सुन्दर सुशील बीवी घर में आई तो सबकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा | साथ में सरकारी नौकरी, उससे सोने पे सुहागा हो गया | अब लड़की जब पढ़ी लिखी थी तो  काम तो करेगी ही, बर्तन भांडे धोने के लिए थोड़े ना कोई पढाई करता है | पर यश की माँ ठहरी १९७० का मॉडल, बहू है तो काम वही करेगी | यश ने देखा की बीवी किचन में भी जुटी है, दफ्तर में भी, तो उसने हाथ बांटने की पेशकश की | बीवी का दर्द ज्यादा टाइम देखा भी नहीं जाता | बस वहीँ गड़बड़ हो गयी | यश की माँ को लगा की लड़का  तो हाथ से गया अब | पर वो ये भूल गयी की लड़की अर्धांगिनी बन के आई है, मतलब की आधा हिस्सा, हिस्सा आधा दो और काम पूरा लो ऐसा तो किसी भी देश में नहीं चल सकता |

और उस दिन से यश पे जोरू का ग़ुलाम का लेबेल लग गया |

आस पड़ोस की औरतें और यहाँ तक की स्कूल जाते बच्चे भी यश को ज़ोरु का ग़ुलाम नाम से जानने लगे, बच्चा तो वही सीखेगा ना जो देखेगा, सुनेगा | वरना बच्चे को क्या पता होगा जोरू का और जोरू के ग़ुलाम का |

अनपढ़ और लाचार बूढ़ी अम्मा के लिए ये समझना मुश्किल हो गया था कि अपने ही घर में खाना बनाना, बर्तन धोना, यानी कि अपना काम खुद करना कब से ग़ुलामी हो गया? अपनी ही बीवी के साथ कोई अगर काम को आधा आधा कर ले तो उसे ग़ुलाम कहने वाले तो सही मायने में अनपढ़ ही होंगे| वो सोच रही थी कि गलती किस कि है, यश कि जिसने कभी अपनी माँ का हाथ नहीं बंटाया या यश कि माँ कि जिसने अपने लड़के को काम कि हवा ही नहीं लगने दी, या यश की बीवी की जो सारा काम  खुद नहीं कर सकती |

अम्मा यश के घर से बड़बड़ाती हुई निकली, शुक्र है मैं पढ़ लिख नहीं गयी, नहीं तो मैं भी ………… |

क्या आपके घर में भी हॉउस होल्ड ड्यूटी ऑटोमॅटिकली  आपकी पढ़ी लिखी बेहेन ही देखती है, जैसे कि खाना बनाओ, कपड़े धोना, बर्तन धोना|

और सबसे ज्यादा इम्पोर्टेंट सूखे हुए कपड़े छत से लाना ? क्या आपने कभी अपने  धुले हुए कपड़ों को तह लगाया है? या वो भी आपकी बेहेन ही करती है ?   

अगर ऐसा है तो आप में भी ज़ोरु का ग़ुलाम बन्ने का भरपूर  टेलेंट है |  

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4 Responses to जोरू का ग़ुलाम

  1. typical…lateral thinking touch is missing….घरेलू देसी पेशकश :(

  2. Ajit Singh Taimur

    बहुत ही बेहतरीन topic पर चर्चा छेड़ दी है आपने …….मैं अपने एक बहुत अच्छे दोस्त के घर में इस मुद्दे पर कलह होती देख रहा हूँ ……..बेचारे ने कभी आज तक एक गिलास पानी तक ले के नहीं पिया ….अब बीवी working woman आ गयी है ….बड़ा धर्म संकट है बेचारे के घर में ….पर मुझे अपने खुद के घर का scene याद आता है …..माँ हमेशा गृहणी रही पर पिता जी हमेशा घर के काम में हाथ बंटाते थे …ख़ास तौर पे रसोई में ……..माँ ने हमें भी घर के कामों के लिए प्रेरित किया …….आज हम दोनों भाई ज़रुरत पड़ने पर पूरा घर सम्हाल लेते हैं ….वही संस्कार मैंने अपने बेटों को दिया हैं …आज मेरे बेटे घर का पूरा काम ….खाना ,बर्तन धोना , साफ़ सफाई , सब अच्छे से कर लेते हैं …….मुझे याद है एक बार मेरे 10 साल के बेटे ने वो राजमा बनाए थे की हम लोग बस उंगलियाँ चाटते रह गए थे ……..ख़ास तौर पे जिन बच्चों को अकेले hostels में रहना हो …बाहर रह के पढना हो , नौकरी करनी हो , उन्हें तो इन सब कामों में निपुण होना ही चाहिए ……….अरे भाई ये तो life skills हैं ……….और फिर पत्नी की मदद करने में कैसी शर्म ……घर परिवार में कैसी ego …..पर ये संस्कार देना माता पिता का काम है ….बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय पे बेहतरीन लेख …..आपको साधुवाद ……

    अजित सिंह तैमूर

  3. very relevant topic..though now a days boys do more:)

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