हुसैनीवाला बार्डर पे एक बार अपन सपरिवार ‘फ्लैग सेरमनी’ देखने गए तो मजा आ गया, बालमन में वहीँ (देश)भक्तिरस से फट पड़ने की लालसा जाग गयी पर चलो जैसे तैसे घर लौट आये। धीरे धीरे बात आई गयी हो गयी, लेकिन बार्डर के उस पार जाने का ईच्छा समय के साथ बलवती होती चली गयी। फिर एक दिन, हुसैनीवाला घटना के शायद दस साल बाद, मेरे नए नए मित्र डाक्टर करन चौधरी का मेसेज आया की भाई पाकिस्तान में एक ‘यूथ कॉन्फ्रेंस’ है और तुमको चलना चाहिए।
अब आज से 6 साल पहले बहुत यूथ था अपने अंदर तो हम एकदम से तैयार हो गए
खबर सुनते ही एकदम से मेरे अंदर का फौजी जाग गया और अब अपने को पाकिस्तान जाना ही जाना था।
जहाँ कॉन्फ्रेंस में जाने वाले बाकी लोग बस, ट्रेन से जाने की सोच रहे थे, मैं एक ही जुगाड़ के चक्कर में था: पैदल वीसा कैसे मिलेगा?
तो यात्रा शुरू होती है शिमला से, बस पकड़ के मैं निकलता हूँ
शिमला की ठंड में, सब तरफ से मेसेज आ रहे हैं फोन पर की पैदल मत जाना, सबके साथ जाना, रात में मत चलना, सबके साथ रहना
और मैं सोच रहा हूँ की मेरे साथ पैदल चलने को तो कोई क्यों तैयार नहीं हुआ….
फ्लैशबैक: इससे पहले पाकिस्तान वीसा मिलने की कहानी भी बड़ी रंग बिरंगी है। दिल्ली में पाकिस्तान हाई कमीशन के एक ओर आलीशान फ्रेंच एम्बेसी है तो दूसरी ओर ‘स्वच्छ भारत’ को चार चाँद लगाती ऑस्ट्रेलियन एम्बेसी है और बीचोंबीच मखमल में टाट का पैबंद – पाकिस्तान हाई कमीशन का दफ्तर। सामने एक टीन का पतरा है, जिसके नीचे कुछ महिलाएं बैठ कर रोटी-चपाती का हिसाब कर रहीं हैं और सामने एक रेलवे टिकट खिड़की के जैसे एक ‘रहस्य्मयी विंडो’ है जिसमे से ‘कल आओ’, ‘जुम्मे के बाद आओ’, ‘बाद में आओ’ जैसी आवाज़ें बाहर निकल रही हैं|
मैं भी उस खिड़की में अपना ‘एवरेज से छोटा’ सर घुसा कर अपनी फरियाद उन तक पहुंचाता हूँ – पैदल वीसा दिला दो – जिसे वो अनसुना कर देते हैं और जुम्मे के बाद आने को कहते हैं। जिसका मतलब शनिवार नहीं अगला सोमवार होता है।
अब मुझे याद नहीं की मैं उन चार दिन, वीसे के इंतजार में, किसके पास रुका था, लेकिन जिसके पास भी रुका था उस
भले इंसान को धन्यवाद।
सोमवार को फिर मिली तारीख़, उन ने बोलै की वीसा तो हम दे देंगे, पर पैदल जाने का ‘परमिशन’ भारत सरकार देगा। जैसे तैसे मेरे मित्र रोशन ने खूब भाग दौड़ कर के मेरे लिए परमिशन जुटा ली, और अब हम चले पाकिस्तान
तो शिमला से अमृतसर की बस में बस अड्डे पे उतरते ही मैं ‘दरबार साहब’ जाने का सोचता हूँ और रिक्शे की खोज में मेरा सामना होता है ‘बिल्ला’ से। बिल्ला का एक हाथ नहीं है लेकिन बिल्ला एक हाथ से ही अमृतसर की गलिओं में अपना रिक्शा समझौता एक्सप्रेस की तरह चला लेता है। दरबार साहिब से मैं निकलता हूँ, लेकिन जाना कहाँ है ये नहीं पता। एक सरदार जी बताते हैं की बॉर्डर तक जाना हो तो ट्रेन से जाओ, बिलकुल बार्डर के पास में उतार देगी। ट्रेन चल रही है, कंटीली तार के उस तरफ पाकिस्तान है, हलकी हलकी हंस राज हंस के गानों की आवाज़ आ रही है, इस ओर से या उस ओर से, ऐसा मालूम नहीं पड़ता|
अटारी हिंदुस्तान का बार्डर है वाघा पाकिस्तान का। दोनों ओर इम्मीग्रेशन काउंटर हैं और गहन जांच पड़ताल के बाद ही आप एक ओर से दूसरी ओर जा सकते हैं। मुझसे पहले कांफ्रेंस में जाने वाले लड़के पाकिस्तान पहुँच चुके हैं और उनको कुछ पैसे की जरूरत है। मेरे पास जरूरत से ज्यादा कैश है और मैं सुरक्षा अधिकारी से पूछता हूँ की कैसे ले जाया जाए? उनका कहना है कच्छे के बीच छुपा कर ले जाओ, ज्यादा सवाल जवाब करोगे तो यहीं रह जाओगे।
मैं अनुमान लगाता हूँ की उन्होंने जरूर बैग में तह लगाए कच्छे में छिपाने को कहा होगा और वहीँ सारा धन छुपा दिया जाता है।
वीसा -पासपोर्ट दिखा कर मैं पैदल पैदल तिरंगे वाले गेट से चाँद तारे वाले गेट से उस पार हो जाता हूँ। पालक झपकते ही देश और घड़ी में समय दोनों बदल जाते हैं। मेरी बढ़ी दाढ़ी देखकर पाकिस्तानी फौजी पूछते हैं – मुसलमान हो?
आगे पाकिस्तानी ‘कस्टम एंड इमिग्रेशन’ दफ्तर में घुसते ही लगता है जैसे किसी ने बीड़ी की फैक्ट्री में काम दिला दिया हो। हर आदमी बीड़ी पी रहा है और हथगोला फटने के बाद फैलने जैसा धुंआ पूरे दफ्तर में फ़ैल रखा है। मुझे मेरी पाकिस्तानी मित्र ने बता रखा था की सिर्फ अधिकारी से ही नोट बदलवाना नहीं तो दलाल अक्सर पुराने नोट चिपका दिया करते हैं। तो अब मैं कोट-पेंट पहने किसी अफसर को ढूंढ़ता हूँ लेकिन सब कुर्ते पाजामे में घूमते बीडीबाज ही दिखाई पड़ते हैं। अंततः बड़े संघर्ष के बाद एक अफ़सरनुमा आदमी दिखता है जो मुझे भारतीय गांधी के बदले पाकिस्तानी जिन्ना दिलाता है।
वहां X रे स्कैन मशीन बंद पड़ी है, और स्कैन ‘ऑपरेटर’ को मेरे झोले में कुछ भी मिलने की कोई आशा नहीं है, वो दूर से ही कहे देता है, ” मशीन खराब है , ऐसे ही निकल जाओ”
और बस ऐसे ही अब मैं पाकिस्तान पहुँच गया हूँ।
सामने एक टैक्सी वाला है, उससे आगे का पता पूछता हूँ, थोड़ा पैदल चलता हूँ। शायद तीन या चार किलोमीटर, एक पतली सी मोटर साइकिल पे पतला सा लड़का मिलता है, आगे लिफ्ट देता है। जब उसे मालूम पड़ता है की मैं दूसरी तरफ से आया हूँ, पूछता है सलमान खान को देखा है आपने?
आगे चिंचि के स्टैंड है, चिंचि एक बेतरतीब तरीके से बनाया गया रिक्शा है, जिसमे आगे मोटर साइकिल है और पीछे बैठने के लिए रेहड़ा सा। जैसे फरीदाबाद-गाजियाबाद में ऑटो को सूअर बना के चलाते हैं, वैसे ही चिंचि होती है।
अब चिंचि से पहुँचते हैं शादमान चौक, वहीँ जहाँ भगत सिंह को फांसी दी गयी थी। वहां आज एक चौक है, और सामने से एक सड़क गुजरती है। कई साल पाकिस्तान में एक NGO ने भारी कानूनी संघर्ष किया, इस चौक का नाम बदल कर भगत सिंह के नाम पर रखने के लिए, लेकिन उन्मादी मुल्लाओं ने इसका नाम बदल कर शादमान रखवा कर ही दम लिया ।
रेलवे स्टेशन पहुँचता हूँ तो वहां की रेल पर वहां के मुलाजिम ही भरोसा नहीं करते। टिकट काउंटर पर टिकट देने से पहले कह देते हैं, जनाब हमारी रेल आपकी रेल जैसी नहीं है, चलेगी तो आज ही पर पहुंचेगी कब इसकी गारंटी नहीं है।
एक ऑटो वाला मिलता है, लाहौर घुमाने को , उसका कहना है, “भगत सिंह नई हुँदा, ता ऐसी वि नई हुन्दे”
वीसा है इस्लामबाद का, तो आप सिर्फ इस्लामाबाद ही जा सकते हैं, चकवाल-कटासराज मंदिर में नहीं उतर सकते, या रावलपिंडी में रुक जाओ ऐसा भी नहीं कर सकते, जहाँ का वीसा है, बस वहीँ रुकना है। लाहौर रस्ते में आएगा, तो ट्रांजिट में कुछ समय बिता सकते हैं, ज्यादा समय बिताया तो फिर वहीँ रख लिए जाओगे- इसकी संभावना बहुत है।
अब ‘देवू वॉल्वो’ बस चल पड़ी है इस्लामाबाद, पाकिस्तान क्या दक्षिण एशिया के सबसे बढ़िया मोटरवे पर। जैसा हाइवे, वैसी ही बस, और बस में वैसी ही ‘बस होस्टेस’, घंटी दबाओ – पानी हाजिर। मुझसे पीछे बैठे ‘पिंडी बॉयज’ ने बेचारी लड़की का हाल बेहाल कर रखा है घंटी बजा बजा कर।
मोटरवे पर गाडी हवाई जहाज के माफिक दौड़ रही है, मेरे साथ कामरान बैठा है जो मुझे इस्लामाबाद छोड़ कर आने के लिए तैयार है। रस्ते में चकवाल आता है, वहीँ कहीं भोले शंकर महादेव का कटासराज मंदिर है, उतरने का मन बहुत है पर ये भी पता है की उतर गया तो पाकिस्तानी वीर-ज़ारा (II) बना देंगे, वापसी में कोई स्कीम लगा कर आऊंगा, ऐसे सोच कर पहुँच गए इस्लामाबाद। क्या पता कोई ज़ारा ही मिल जाए तो अपनी वीर-जारा भी कम्प्लीट हो जाए 😀
अब कॉन्फ्रेंस में अपना कोई ख़ास इंटरस्ट था नहीं, डिबेट हुए, कश्मीर समस्या का हल अंग्रेजी में निकालने की कोशिश भी की गयी, लेकिन मेरा मन तो तक्षशिला में था, जांच पड़ताल की, ISI के हाई कमीशन के दफ्तर में भी गए लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा, हमें भगा दिया गया|
एक वीसा फॉर्म वहां पाकिस्तान इमिग्रेशन वालों के पास जमा करना होता है जो मेरा अपने देश में ही खो चुका था, लेकिन पाकिस्तानियों ने माँगा नहीं और मैंने उन्हें बताया नहीं, और बात आयी गयी हो गयी। वही फार्म सत्यापित करा के लोकल पुलिस के पास जमा कराना था पर मेरे दिमाग से वो बात अब दूर हो चुकी थी।
दो दिन बाद कॉन्फ्रेंस हाल के बाहर ‘एंटी टेरर स्क्वाड’ वाले बड़ी सी बस्तरबंद गाडी लेकर आ गए और मुझे लगा अब ये धोयेंगे और मारते मारते वो सब राज मुझसे उगलवा लेंगे जो मेरे पास हैं भी नहीं। पर वो मेरे लिए नहीं आये थे, श्रीलंका क्रिकेट टीम को एक बार उन्मादी पाकिस्तानियों ने धोया था, सरे राह-सरे आम, गोला-बम बारूद कर दिया था मलिंगा और संगाकारा की टीम को, बस तबसे एंटी टेरर स्क्वाड वाले कुछ ज्यादा ही मुस्तैद हो रखे थे
अंततः मेरा वापसी का मन बन गया, झूठ बोलकर निकल आया कॉन्फ्रेंस से, और अब कटासराज में उतरने का पूरा मन बन चुका था, लेकिन फिर चकवाल पहुँचते पहुँचते दिल में धुकधुकी सी उठने लगी की पकड़ा गया तो बहुत मारेंगे, और मुझे हिंदी फिल्मों में जासूसों पे किये गए अत्याचार याद आने लगे, जैसे की उल्टा लटका के चमड़े की बेल्ट से मारना – बस दूर से ही हर हर महादेव करते हुए अपन पहुँच गए लाहौर वापिस।
दोपहर के तीन-चार बजे बार्डर पर पहुंचा, सोच ये रखा था की फ्लैग सेरेमनी देख कर अकड़ कर चलता हुआ हिंदुस्तान चला जाऊँगा| सबकी आँखें फटी की फटी रह जाएंगी, लेकिन वैसा हुआ नहीं। ‘डिप्लोमेट’ या ‘सुपर एमरजेंसी’ केस ही शाम को बार्डर पार कर सकते हैं, और मेरे लिए अब नयी मुसीबत हो गयी थी, पाकिस्तानी करेंसी मेरे पास बची नहीं थी और वापिस लाहौर जाने की कोई इच्छा नहीं थी। जैसे तैसे, मिन्नतें कर के पाकिस्तान टूरिस्म के होटल में रात बिताई। पूरी रात यही सोच कर निकली की बाहर कोई बम लगा रहा है और मुझे मारने की साजिश रची जा रही है।
अब अगली सबह होते ही मैंने बार्डर पार किया, मेरे साथ कुछ सरदार भी इधर से उधर और उधर से इधर आ-जा रहे थे, यहाँ हरमंदिर साहब है तो वहां ननकाना साहिब – किसी का कुछ यहाँ छूट गया तो किसी का सब कुछ वहां।
पहाड़ी टोपी मेरे सर पे और BSF के कमांडेंट साहब ने पूछ लिया, ये टोपी कहाँ की है?
मैंने भी कह दिया, पहाड़ी टोपी है जनाब…
पाकिस्तान में लुप्तप्राय मंदिरों और गुरद्वारों की दुर्दशा पर शिराज़ हसन काफी समय से लिखते आ रहे हैं: पंजा साहिब | पाकिस्तान के मंदिर
वाह सर…मजा आ गया पढ़ कर। एक निवेदन है कि नीरज जाट भाई को कभी पाकिस्तान की रेल मे बैठने की जुगाड़ लगवाओ…इस बंदे ने कोहराम मचा रखा है कभी ये रेल कभी वो रेल…😁😁
Hahahaha… अगर ये किसी पाकिस्तानी ने पढ़ा तो अगली बार वीसा नही मिलेगा सरजी, हाई कमीशन दफ्तर से ले कर पिंडी बॉयज तक कि उतार दी,, वैसे बहुत ही अच्छा यात्रा वृतांत है।
मज़ा आया … वैसे वहां के बाज़ारों, खानों, औरतों आदि के बारे में आपकी कलम से लिखे को पढ़ने में मज़ा आता। वह भी अब लिख ही मारो, और अब रुकना नहीं।
आपकी यात्रा की तरह ही आपके शब्दों का प्रयोग भी जबर्दस्त है. Keep it up 👍
पाकिस्तान जाना तो ऐसा हो गया है जैसे न्यूक्लियर बम फिस्फोट से बच निकलना। आपके घुटने के पीछे कहीं…मैं ऐसा कह नहीं रह हूँ सिर्फ सोच रहा हूँ। वैसे हो भी सकता है। पढ़ने में तो टिनटिन के एडवेंचर से कम नहीं है बाकि आप जानते होंगे कि गाड़ी का हॉर्न भी वहां कोमा में ले जाने की हैसियत रखता है।
बहुत ही रोचक पाकिस्तान यात्रा लिखी । हालांकि लिखना जितना आसान है, उतना जाना-आना नही रहा होगा ।
वाह.आनंद आ गया। लगा कि आपके साथ हम भी पाकिस्तान घूम लिए.. कई बार ये भी एहसास हुआ कि इसे जरा और लम्बा चलना चाहिए था 😊
बहुत ही अच्छा वृतांत सरजी थोड़ा ज्यादा होना था पर
बहुत अच्छा पर थोड़ा लंबा घूमना था
खर्चा कितना आया था भाइजी ? बिना वजेह का वीज़ा भी लग सक्ता है??
kaffi acha laga bhai apne padosi desh ko kreeb se dekh kar