2011 में त्रियुंड ट्रेक में भारी असफलता मिलने के बाद (8 घंटे में 8 किलोमीटर गिरते पड़ते चलने के बाद) मैं ट्रैकिंग से तौबा कर चुका था, लेकिन फिर पुनर्विचार करने के बाद और पंडित जी की घनघोर संगत में पड़ने के बाद मैंने सोचा क्यों न रिस्क ले लिया जाए और देखा जाए की पहाड़ ‘असल में दिखते कैसे हैं’|
पंडित जी का कहना था की गाडी/मोटरसाइकिल से आपको सिर्फ बर्फ दिखती है, असली पहाड़ तो पैदल चल के ही दिखते हैं…
तो अब अपन चल पड़े भुभु जोत की यात्रा पर
भुभु जोत – 2850 मीटर , लघ घाटी (कुल्लू) को चुहार घाटी (मंडी) से जोड़ती है, जोत आसान है, रास्ता एकदम नेशनल हाइवे के माफिक लेकिन अगर ये आपकी सबसे पहली ट्रैकिंग है तो भुभु जोत कभी भी अप्रैल के महीने में न जाएँ।
ये 2011 की बात है जब इंटरनेट की दुनिया में हिमाचल ट्रैकिंग में सिर्फ एक नाम चलता था “शलभ वशिष्ठ”, शलभ की वेबसाइट से हम ट्रेक उठाते और निकल पड़ते उस के बनाये हुए रस्ते पर। शलभ की NIT से इंजीनियरिंग और IIM से MBA करने के बाद दो साल की ब्रेक लेकर घरवापसी हुई थी और इन दो सालों में उसने सिर्फ ट्रेक किये और उन ट्रेक को अपनी वेबसाइट पे संजोया, दुर्भाग्यवश शलभ की साइट अब बंद है और काफी अच्छा बढ़िया खजाना खो गया है।
तो यात्रा शुरू होती है जोगिंदरनगर बस अड्डे से जहाँ पंडित जी दिल्ली की बस से उतर चुके हैं और मैं सुंदर नगर से बस में बैठ कर जोगिंदरनगर पहुँचने वाला हूँ, पंडित जी वहीँ बस अड्डे पे लुटे पिटे लेटे हुए हैं, और मुझसे उतरते ही पूछते हैं सूखे मेवे लाये? अब ये बात आज से 7 साल पुरानी है, अपन तब चॉकलेट केक वाले यंग ब्लड थे, तो मैंने मना कर दिया, जिस पर हम दोनों के बीच बीस मिनट का कोल्ड वार छिड़ गया जो बरोट की बस दिखते ही सुलझ भी गया क्यूंकि सीट झपट कर लपकने का डिपार्टमेंट मेरा था।
टिक्कन पुल पर हम उतरते हैं और पैदल पैदल बढ़ जाते हैं सिलह बुधानी की और, जहाँ महकमा जंगलात का एक रेस्ट हाउस है। वहीँ रस्ते में एक छोटा सा गाँव आता है ‘मठी भजगाण’ (देवगढ़ ) जहाँ चुहार घाटी के आराध्य देवता पशाकोट का मंदिर है, मूल स्थान।
“मंदिर नया बन रहा था, महंगी लकड़ी का काम हो रहा था, सामने बोर्ड लगा रखा था – मंदिर में जूते, चमड़े, नशे के साथ आना वर्जित है, नीची जाति के लोगों का अंदर आना वर्जित है’
अभी मंडी में अन्तरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्स्व चल रहा है, वहां ये सब तख्तियों से आखिरी लाइन गायब हो चुकी है, गाँव की तख्ती से गायब हुई या नहीं ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है, लेकिन गाँव से गायब नहीं हुई है, ये बात मैं बिना जाए भी आपको बता सकता हूँ”
मंदिर से उतरते हैं नीचे थल्टूखोड़ की ओर, ये इलाका द्रंग विधानसभा का इलाका है और शायद मंडी के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक, सड़क यहाँ शायद एक दशक पहले ही पहुंची है और बस सुविधा नगण्य के बराबर है। अब शाम का समय है, थल्टूखोड़ में एक छोटी गाडी मिलती है जिससे बिना मोल भाव किये हम निकल पड़ते हैं सिलह बुधानी की ओर। सामने पहाड़ी पर वो बड़ा सा थाच दीखता है, जिसपर चलकर कुल्लू वाले डायना सर झील की यात्रा पर निकलते हैं ‘सरी जोत’ लांघने के बाद।
अब जब जातिवाद की बात चल ही पड़ी है तो एक किस्सा और सुनें ।
शिव राम सैनी, जिन्होंने धौलाधार हिमालय पर एक अच्छी किताब लिखी है, शायद 70 या 80 के दशक में डायना सर झील की यात्रा से लौटते हुए, इन्हीं पहाड़ियों से होकर, सरी जोत लांघ कर समालग गाँव पहुंचे थे। खाई में गिरने के बाद उनकी एक टांग टूट गयी, रात खुले में बिताने के बाद जैसे तैसे वो समालग पहुंचे तो गाँव वालों ने अंदर नहीं घुसने दिया जिसका कारण उनका ‘छोटी जाति’ का होना बताया गया। फिर काफी विचार मंत्रणा हुई, सीता माता की तरह उनसे भी एक ‘अग्निपरीक्षा’ देने को कहा गया, फिर उसके बाद कहीं गाँव के अंदर उनकी एंट्री सम्भव हुई।
अब सिलह बुधानी में हम रुकते हैं, नीचे देवता हुरंग नारायण का बड़ा सा मंदिर और हुरंग गाँव दिखाई पड़ता है, बायीं ओर भुभु जोत दिखती है तो दायीं ओर पधर गाँव की हलकी सी झलक। सामने एक नुकीला सा पहाड़ दीखता है, जिसे तब मैं पहचान नहीं पाया लेकिन अब मुझे ज्ञात है की वो देओ टिब्बा ही था। सुबह का निर्णय लिया जाता है की जल्द सुबह निकल लेंगे जोत के लिए और वहां से मैं अपने घर और पंडित जी जाएंगे दिल्ली। लेकिन सुबह उठते ही नीचे हुरंग गाँव से देव-ध्वनि सी गूंजने लगी, देवता का रथ सुसज्जित था और देवता सम्भवतः ग्राम भ्रमण पर निकलने वाले थे, सुनते ही हमने भी गाडी में चौथा गियर डाला और निकल लिए गाँव की ओर, जिसका मतलब था की कम से कम चार किलोमीटर ‘एक्स्ट्रा चलना’
वहां मंदिर में खूब आवभगत हुई, ‘तख्ती’ में ढूंढता रहा लेकिन कहीं दिखी नहीं और अन्त्ततः दस बजे हम भुभु जोत की ओर कूच कर गए।
रस्ते में लोग मिलते हैं, मना करते हैं आगे जाने के लिए, लेकिन पंडित जी हँसते मुस्कुराते हुए आगे निकल पड़े और मैं पीछे पीछे। आगे दूर बड़ी पहाड़ी पर एक सफ़ेद पंछियों का झुण्ड दिखता है, मैंने वैसे पंछी पहले कभी नहीं देखे, गोल गोल अंडे जैसे पंछी।
पंछी हमें देख कर उड़ लिए। आगे अब पथरीला रास्ता शुरू होता है, थोड़ी ही दूरी पे जोत के झंडे दिखाई पड़ते हैं, और ये लो तीन घंटे में जोत पर आ गए, लेकिन अब आगे समस्या गंभीर है।
अप्रैल का महीना है, हवा उतनी गर्म है नहीं और सामने बर्फ बहुत है। कहीं सख्त सख्त- कहीं नरम नरम, और मैंने इतनी बर्फ अपने पाँव के नीचे पहले कभी नहीं देखी। समुद्र तल से 2850 मीटर ऊपर वाद-विवाद प्रतियोगिता शुरू हो जाती है और मैं हर हाल में जीतना चाहता हूँ, लेकिन अंततः जीत पंडित जी की होती है। मैं वापिस जाने की लाइफ लाइन मांगता हूँ, लेकिन तब तक पंडित जी मुझे समझा-बुझा कर आगे निकल चुके हैं।
अब बर्फ में खड़े होकर उतरना थोड़ा मुश्किल जान पड़ रहा था, तो अपन दोनों बैठ गए, बैठते बैठते लेट गए क्यूंकि ढलान बहुत तेज़ थी, एक गलत कदम और नीचे कुल्लू में ढालपुर मैदान पे सर मिलता, धड़ कहीं पेड़ों पे ही लटका रह जाता।
घिसटते घिसटते बर्फीले ढलान से निकले तो अब जंगल में उलझ गए, इधर उधर बंदर गुलाटी खाने के बाद एक कच्चे रास्ते पर पड़े तो नीचे से दो पतली लकड़ियां लेकर आता हुआ एक लड़का दिखा। शाम के चार बज रहे थे, और वो आदमी गाना गाता हुआ ऊपर की ओर आ रहा था। उसने कहा की आपको देखकर ‘मजा’ आया पर आपने देरी कर दी नीचे उतरने में।
मैंने पूछा और आपने?
उसका कहना था, मैं तो 45 मिनट में जोत लांघ के अपने गाँव भी पहुँच जाऊँगा, और क्यूंकि मैं तब नया खिलाड़ी था, उसकी बात का मजाक बना दिया। हमें उतरने में दो घंटे लग गए और उसे चढ़ने में मात्र 45 मिनट लगेंगे।फिर पहाड़ों में कई साल सर मारने के बाद मुझे समझ आ गयी की पहाड़ी आदमी अगर 45 मिनट कहे तो मिनट 45 ही लगेंगे, फिर चाहे बर्फ आ जाए या बाढ़।
नीचे उतरते ही एक विचित्र नजारा दिखा, एक छोटा सा गाँव जिसमे कुल मिलाकर तीन या चार ही घर थे। गाँव की महिलाओं से गाँव का नाम पूछा तो कहा गया की नाम तो कुछ नहीं है, कुल्लू वाले कालापानी बोलते हैं
(शायद उस गाँव का नाम तेलंग है, लेकिन मुझे पक्की जानकारी नहीं है)
अब उस गाँव तक कहते हैं सड़क आ गयी है और जल्द ही टनल भी आ जाएगी, जिससे लघ-चुहार की दूरी घट कर आधी रह जाएगी, ऐसा ये लोग 2010 से सुनते आ रहे हैं, लेकिन अब तो आठ साल बीत गए, सरकारें तीन बदल गयी लेकिन न सुरंग बनी और न ही इनकी किस्मत।
वहीँ आगे एक हिमरि जोत भी है, जो मनाली के आस पास कहीं निकलता है परन्तु अब वो जानकारी शलभ की वेबसाइट के जाने के बाद लुप्तप्राय ही है
देखिये पेंट गीली होना किसे कहते हैं 😀
हिमाचल में टोपी की राजनीती के बाद सबसे मजेदार राजनीति सुरंग/टनल की राजनीति है।
चुहार घाटी से लघ घाटी के लिए एक सुरंग बन रही है, सुरंग की लम्बाई 2.8 किलोमीटर रहेगी| इसका पहला हवाई फायर पहले धूमल सरकार (2010) ने किया, फिर वीरभद्र सरकार ने इसका प्रोपोज़ल बनाया (2013) और अब अंततः ये जिम्मा जयराम सरकार (2018 ) के पास आ गया है की इस लॉलीपॉप में कितना गुड़ लगाना है, कितना लम्बा प्लास्टिक का डंडा लगाना है ताकि लॉलीपॉप के लम्बे और बड़े होने का भरम बना रहे|
ऐसी ही एक सुरंग पपरोला (उतराला) से भी बन रही थी, लेकिन मंत्री जी के बदले तो सुरंग भी अपने साथ ही ले गए और अब वो सुरंग चामुंडा (तालंग पास) से बनेगी।
कैसे बनेगी, कितने दिन में बनेगी, ये सब जानकारी हमें 2022 के विधानसभा चुनाव के एकदम पहले सब बता दिया जाएगा।
तब तक खोदते जाइये…..
सुरंग संबंधित जानकारी के लिए पढ़िए: तीन सुरंगों के लिए सर्वे टेंडर (2010) | जालसू पास सुरंग की कहानी (2013)|
वैसे गीली जीन में तहलका तो मच गया होगा तहखाने में । द एपिक विडिओ इज द बेस्ट पार्ट दिस ब्लॉग ।
वाह, ऐसा लग रहा खुद ही जा के आ गया!!
बरोट से राजगूँधा ट्रेक के बारे में सुना है,
उसके बारे में भी कुछ लिखा है तो बताएं।
बहूत ही सुंदर!
ऐसा लगा जैसे खुद घूम रहा हु इन पहाड़ो में ।
बरोट से राजगूँधा ट्रेक के बारे में सुना है, अगर उस पर भी कुछ लिखा है तो बताएं