धौलाधार डलहौजी से उठते हैं और उठते ही चले जाते हैं, धर्मशाला पहुँचते पहुँचते ये इतना उठ जाते हैं की इनकी ऊंचाई 4500 मीटर से भी ऊपर चली जाती है। अब कुछ का ‘सेक्शन’ धौलाधार चम्बा से चम्बा को विभाजित करता है, कुछ कुल्लू को मंडी से, और कुछ वहां दूर दराज कुल्लू-शिमला तक चला जाता है लेकिन इसकी जो ऊँची सीधी दीवार है वो कांगड़ा से चम्बा को विभाजित करती है। कहने का मतलब ये है की ये धौलाधार सीधी रेखा में नहीं चलते , इनकी कुछ टहनियां दाएं भागती हैं, कुछ बाएं और तना जो है वो डलहौजी से सीधा रोहतांग तक जाता है,
अब दाएं-बाएं तो टहनियों पे मैं बहुत कूदा हूँ, लेकिन कभी तने के इर्द गिर्द घूमने का न मौका मिला और न हिम्मत हुई, जिसका कारण है बारिश। यहाँ बारिश इतनी होती है की जून से अगस्त में जाने का मन नहीं करता और सितंबर अक्टूबर में पीर पंजाल बुला लेते हैं|
आज दिन तक मैंने धौलाधार में ट्रैकिंग के नाम पर इन्द्राहार पास, जालसू पास, भुभु पास देखा है जबकि यहाँ 25 से 30 पास हैं
साल 2013: पंडित जी की अगुआई में हम तीन लोग बोहार पास की यात्रा को निकले| अब जब निकले तो पंडित जी दो असफल प्रयास पहले ही कर चुके थे, जिनमे से एक असफल प्रयास में मेरी भी भागीदारी थी लेकिन ‘हल्के धौलाधार‘ में जाने का प्रलोभन बारिशों पे भारी पड़ गया और मैं दूसरी बार फिर से से तैयार हो गया। यहाँ आप ध्यान दीजिये ‘हल्के धौलाधार‘ पे जिसका निचोड़ इस पोस्ट के अंत में निकलेगा।
हलके धौलाधार का मतलब है की ऊंचाई तो कम होगी लेकिन एक छोर से दूसरे छोर तक चलने की लम्बाई बढ़ जाएगी। जैसे जालसू पास है तो केवल 3400 मीटर ऊँचा, परन्तु पपरोला (कांगड़ा) से न्याग्रां (चम्बा) पहुँचते पहुँचते जाँघों का ‘जरासंध’ हो जाता है। बोहार पास से शुरुआत होती है ‘कांगड़ा-चम्बा डिवाइड’ की, इससे पहले भी तीन पास आते हैं (बोहार पास से डलहौजी की और देखें तो) चुवाड़ी जोत, काली नाली जोत, और लोआ जोत – परन्तु ये तीनों चम्बा को चम्बा से ही जोड़ते हैं।
तो अब हम तीन मित्र निकल चुके हैं बोहार पास की यात्रा पर। मोटरसाइकिल पे मैं और रिजुल शाहपुर पहुँचते हैं और पंडित जी दिल्ली से आते हैं। मोटरसाइकिल एक जानकार के घर में खड़ी कर के अब हम एक स्कूल बस में लिफ्ट मांग कर रिड़कमार पहुँचते हैं और वहां से आगे बोहार की तरफ ‘हाइड्रो प्रोजेक्ट’ की गाडी में लिफ्ट लेकर पहुँचते हैं बोह गाँव।
हमारा रुट है: बोह गाँव – काली मिटटी का डेरा – बोहार पास – राख गाँव
वहां एक छोटी सी दुकान पर पंडित जी थोक के हिसाब से सामान खरीदवाते हैं जिसकी ढुलाई का जिम्मा सर्व-सम्मत्ति से रिजुल को दिया जाता है। चूँकि हम सर पे कफ़न बाँध के निकले थे, अर्थात हम एक ही दिन में बोह से राख गाँव पहुंचना चाहते थे, तो हमने पहले 5 किलोमीटर मात्र 1 घंटे में कवर कर लिया है, मेरा सामान मुझ पर भारी पड़ रहा है और वो मैं दान में रिजुल और पंडित जी को देना चाहता हूँ पर उन दोनों ने सहर्ष मना कर दिया है|
कहते हैं जल्दी का काम शैतान का इसलिए हम एक गलत ही पहाड़ी पे चढ़ चुके हैं और वहां अवैध कटान वाले हमें देख कर लकड़ी काटना बंद कर चुके हैं, वहां से पता चलता है की सामने वाली पहाड़ी हमको चढ़नी है। हम वापस मुड़ते हैं, अवैध कटान का काम पुनः जोर शोर से शुरू हो जाता है
ये पहला सिग्नल था
अब हम चले जा रहे हैं, सामने ब्लैनी पास दिख रहा है और उसके बाएं तरफ बोहार का जोत। आगे गद्दियों के डेरे दिखते हैं, जगह का नाम है काली क्यारी। यहाँ की मिट्टी काली है और दलेर सिंह जी का यहाँ डेरा है। अब हम चलते चलते पक चुके हैं और दलेर सिंह की सलाह मानते हुए हम डेरा डाल चुके हैं।
गद्दियों का डेरा मतलब मिटटी-पत्थर के बने हुए छोटे छोटे कमरे, जहाँ ये डेरा मिल जाए, वहां टेंट लगाने की आवश्यकता नहीं रहती, और साथ ही जलाने के लिए लकड़ी का भी इंतजाम हो जाता है
कहते हैं कि लोग अक्सर राह चलते इन गद्दियों कि भेड़ें चुरा ले जाते हैं | चलते चलते गाडी में 4 -5 भेड़ उठा के डाल लो और गायब | भेड़ चोरी के लिए थोड़े न पुलिस होती है, जिनसे ‘रेपिस्ट’ नहीं पकडे जाते वो भेड़ चोर को कैसे और क्यूँ पकड़ेंगे ? ये सब कहना है दलेर सिंह का |
दलेर सिंह सिर्फ सोलह साल के थे जब वो पहली बार अपने पिता के साथ अपनी भेड़-बकरियां लेकर निकले| पहले समझ नहीं आया कि इतना चलते क्यूँ है? क्यूँ ऊँचे ऊँचे पहाड़ों में बर्फ में जान गवाने का खतरा लेकर चलते हैं? क्यूँ बारिशों में बिना छत के घरों में रुकते हैं |
फिर उसने एक पूरा ‘समर सीजन’ चम्बा कि वादियों में गुजारा, दुनिया से एकदम दूर, ‘भोले’ के एकदम पास |
अगले ही साल दलेर सिंह जिद करके अपने पिता कि जगह खुद भेड़ बकरियां लेकर वादियों में घूमने लगा | और आज दलेर सिंह 62 साल का हो चुका है | आज भी वो अपना ज्यादा समय हिमालय कि वादियों में बिताता है | पर अब वक़्त वैसा नहीं है या शायद वक़्त वैसा ही है, लोग बदल गए हैं |
दलेर सिंह के दो बेटे हैं और दोनों वहीँ भरमौर में काम करते हैं | अपना खुद का काम छोड़ कर, कई हजार भेड़ों का काफिला हुआ करता था इनके पास कभी, लेकिन अब कुछ सौ भेड़ें बची हैं | कई कम्पनियां इन्हे संपर्क कर चुकी हैं, की भेड़ों को हमारे फार्म में बेच दो, हम तुम्हें नौकरी देंगे, चौकीदार की |
दलेर सिंह कहता है की अपना ही ‘धन’ बेच कर उसकी रखवाली करूँ? अभी भी तो उसीकी रखवाली करता हूँ, अपना समझ कर | पर अभी चौकीदार नहीं हूँ मालिक हूँ, साथी हूँ अपनी भेड़ बकरियों का, कंपनी में जाके भी रखवाली ही करूँगा, लेकिन फिर बन जाऊँगा सिर्फ चौकीदार | उसके बच्चे कहते हैं की इस चोरी चकारी में जान चली गयी किसी दिन फिर? चोर अक्सर बन्दूक लेकर घुमते हैं, इन गद्दियों के पास सिर्फ एक दराती होती है |
यही गप्पों का दौर चलता रहा और रात की जल्दी ही सुबह हो गयी। दलेर सिंह हमें समझाते हैं की बाएं जाना , दाएं नहीं। दायां बायां के चक्कर में हम गड़बड़ कर जाते हैं और फिर लेफ्ट-राइट करते हुए हम एक ऐसा लेफ्ट लेते हैं जो राइट नहीं होता और अब हम हैं और जिस पहाड़ी को हम बोहार पास समझ रहे थे वो कुछ भी नहीं निकलता है।
ये दूसरा सिग्नल था
हल्की सी झड़प के बाद ये निष्कर्ष निकलता है की अब बाएं से सीधे चलो, आगे कहीं से दाएं मुड़ जाएंगे। और इस तरह चलते चलते हम बिलकुल घाटी की तलहटी में पहुँच जाते हैं। समय शाम के पांच बज रहे हैं, सामने एक सीधा रस्ता है और दूसरी तरफ खड़ा पहाड़ जिसे चढ़ के हम एक बार फिर बोहार पास के बेस पे पहुँच सकते हैं।
लेकिन कल संडे है परसों मंडे और पंडित जी को जाना है दिल्ली और अपने को मास्टरी करने वापिस घर, तो हम सर्वसम्मत्ति से निर्णय लेते हैं की चलो घर वापिस चला जाए , वहां जाकर स्टूडेंटों को पेला जाए|
तो जिसे समझ रहे थे हम हल्का पहाड़, उसने हमपे किया ऐसा प्रहार कि हम लोग दो दिन बाद फिर घूम के वापिस वहीँ पहुँच गए जहाँ से चले थे।
ये तीसरा सिग्नल था
एक महीने बाद धुन के पक्के पंडित जी और रिजुल एक बार फिर बोहार कि यात्रा पे गए, लेकिन इस बार उन्होंने बाएं मुड़कर चम्बा पहुँच कर ही दम लिया। आपको कभी अगर बोहार जाना हो तो आप पहले दिन डेरे में रुक कर सीधा राख पहुँच सकते हैं, परन्तु ध्यान रहे कि बोहार पास से राख तक का रास्ता भयंकर जंगल से होकर जाता है और वहां भालू दर्शन होना अवश्यम्भावी है।
जैसा कि इन दोनों को अपनी फाइनल बोहार यात्रा में दिखा था…
बुझाता है कि यहाँ का भी रास्ता दायें-बाएं के चक्कर में भूल गये थे। बड़ी देर लगायी आने में कब से अदरक की चाय का कप लेकर बैठा था….ठंडी हो गयी । चले फिर दलेर सिंह की टपरी में गर्म करते हैं चाय ?
दलेर की दिलेरी