नीलकंठ महादेव नाम के अनुरूप ही एक नीले रंग की छोटी सी झील है लाहौल के पटट्न घाटी में (चंद्र भागा नदी की घाटी में)। लाहौल में बस सेवा पूरा साल चलती है। जब जब भारी बर्फबारी हो तब बस सेवा बंद रहती नहीं तो घाटी में अंदर कहीं से कहीं भी जाने पर कोई रोक नहीं रहती। बस घाटी से बाहर जाने की समस्या रहती है जो अब रोहतांग सुरंग बनने के बाद जल्द ही ‘सॉल्व’ हो जाएगी। सुरंग अपने साथ क्या क्या समस्या साथ लाएगी ये तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन अभी के लिए तो सुरंग = वरदान| अब बसें चलती तो लगभग पूरा साल हैं, लेकिन इनकी घिसाई बड़ी जल्दी होती है। तो किसी का कल पुर्जा घिस चुका होता है तो किसी बस के ड्राइवर कंडक्टर ही घिस चुके होते हैं (अब लाहौल में काम करना आसान काम तो है नहीं)
तो ये हमारा 2016 का दूसरा फेरा था लाहौल का। पहला फेरा ड्रिल्बू परबत की परिक्रमा जिसके बारे हम अगले रविवार बात करेंगे, और दूसरे फेरे में नीलकंठ महादेव। नीलकंठ महादेव में महिलाओं का जाना वर्जित है, क्यों वर्जित है इसके बारे में कही-सुनी बातें हैं, और पहाड़ों और अंधविश्वास का तो जन्म जन्मांतर का रिश्ता है। तो इस प्लान में कमल प्रीत को ‘ड्राप’ किया गया और उसकी रिप्लेसमेंट कांगड़ा जिला के ही होनहार ट्रैक्केर सौरभ शर्मा ने पूरी की।
बस केलंग से चलते ही कुछ ढीली ढाली सी थी और कुछ दूर चलने पर ही उसके कल पुर्जे अलग थलग हो गए। बस एक मिटटी के ढेर से टकराई और रुक गयी नहीं तो ‘कुछ सौ फ़ीट’ नीचे बहती चंद्रभागा में तो रूकती ही रूकती। जैसे शराबी आदमी नशे में हाल-बेहाल हो जाता है, वैसे ही ‘स्टीयरिंग रॉड’ टूटने पर हमारी बस की हालत हो रखी थी। थोड़ी ही देर में दूसरी बस आयी और यात्रा पुनः आरम्भ हुई। अब दूसरी बस थोड़ी मनचली थी इसलिए ये हर गाँव, पंचायत से हो होकर गुजरती हुई नैनगाहर तक पहुंची। रस्ते ऐसे की ऊपर की सांस ऊपर ही अटकी रही।
नीलकंठ का बेस स्टेशन है ‘नैनगाहर’ गाँव जहाँ से पैदल चलना शुरू किया जाता है थिरोट नाले के साथ साथ। नैनगाहर एक छोटा सा गाँव है जहाँ एक दुकान है, अब यही दूकान जरूरत के अनुसार कभी ढाबा तो कभी सराय बन जाती है। रास्ता बना हुआ है, ऐसा हमने सुना था लेकिन पहाड़ों के बने हुए रस्ते कभी कभी मुसीबत बन जाते हैं। जांच पड़ताल की तो पता चला की अगले दिन पूरा गाँव (पुरुष ओनली) ऊपर झील पर जा रहा था। लो जी अपना काम बन गया…
फल फ्रूट, अंडा बिस्कुट पूरी सप्प्लाई मिलेगी। लाहौल के लोगों की यही विशेष बात है की जब ट्रेक करते हैं तो पूरा असला बारूद साथ रखते हैं। मैंने तीन बार
सर्दियोंमार्च-अप्रैल में रोहतांग पार किया है और तीनों बार लाहौली लोगों ने खाने पीने की पूरी सेवा की। एक अंकिल तो ओल्ड मोंक प्लास्टिक की बोतल में भर के गाते-पीते चले हुए थे।
अब जब पूरा गाँव जा रहा था तो अपने खाने-पीने-गाइड की समस्या हल हो गयी समझो। लेकिन दूसरी समस्या ये थी की ये सब लोग भी ऊपर रुकेंगे तो हम कहाँ रुकेंगे। लेकिन नैनगाहर वाले भले लोग हैं, एक ही दिन में 30 -32 किलोमीटर चल के वापिस लौट जाते हैं। हमें भी लोगों ने उकसाया की आप चल लोगे, रुकना क्यों है, शाम को यहाँ भंडारा होगा, तो हमारा भी प्लान बदल गया। सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद करते हुए हमने फिर भी टेंट उठा लिया कि अगर रेस में पिछड़ गए तो ऊपर ही रुक जाएंगे, बिना खाये एक रात तो इंसान जीवित रह ही सकता है।
अब गाँव के लोग सुबह चार बजे चलने थे, तो हम उनसे आधा घंटा पहले उठ के चल दिए। सामने काली छो और पीर पंजाल कि पहाड़ियां सूरज कि किरणों में नहाती थी और हम लाहौल कि ठंडी हवा से उलझते हुए आगे बढ़ रहे थे। छ बजते बजते पीछे गाँव से एक पंक्ति में रौशनी का झुण्ड आता दिख रहा था। नैनगाहर वाले देरी से चले थे, लेकिन उनकी स्पीड पी टी उषा से थोड़ी सी ही कम थी।
अल्यास (गद्दी का डेरा) पहुँचते पहुँचते गाँव वाले हमारे साथ हो लिए थे। अब गद्दी के डेरे पे हमने अपना फ़ालतू सामान सराय में रख दिया, मुफ्त में मिलता काजू-बादाम-हलवा खाया और अब अगले चैलेंज कि ओर बढ़ चले। नीलकंठ कि झील तीन तरफ से ऊँची बर्फ कि पहाड़ियों से ढकी है और सामने से हम आ रहे थे। जितना भी पानी है वो सारा थिरोट नाले में उतरता है और 7 -8 बजे तक नाला एक पहाड़ी नदी का रूप ले चुका होता है। अब उस नाले को नंगे पेअर ‘क्रॉस’ करना एक बहुत बड़ा चैलेंज है।
दो साल बाद उस नाले का ब्यौरा देते हुए भी मेरे पाँव में कंपकंपी सी छूट रही है। पहला कदम रखते ही ऐसा लगता जैसे सुईओं के खेत में से गुजर रहे हों। नाला 20 – 25 मीटर चौड़ा है लेकिन आदमी कि 15 मीटर तक ही ‘बाय गॉड’ हो जाती है और 20 तक ऐसा लगता है कि आप बिना टांगों के ही पैदा हुए थे। सौरभ शर्मा साइंस के स्टूडेंट हैं इसलिए उन्होंने बहुत साइंस लगाने कि कोशिश कि लेकिन अंततः शर्मा जी को बर्फ का घूंट पीना ही पड़ा।
नाला लांघते ही सामने गैंगस्टैंग परबत और उसके नीचे नीलकंठ परबत दिखाई पड़ते हैं। दूर दायीं तरफ एक दीवार दिखती है, बर्फ कि , ‘गेम ऑफ़ थ्रोन्स’ जैसी ऊँची लम्बी ठोस बर्फ कि बनी हुई। नाला वापसी में दुबारा लांघना पड़ेगा, इस चक्कर में सबकी स्पीड दुगुनी हो चुकी है। हमारा लाहौली पार्टनर नवीन बोक्टापा सबसे फिसड्डी है।
पत्थरों के मायाजाल को लांघ कर सामने एक चौड़ा मैदान दीखता है। कभी यहाँ भी झील हुआ करती थी जो एक दिन पानी के दबाव से फट गयी और अब यहाँ सिर्फ दलदली हरा मैदान दिखाई पड़ता है। झील तक पहुँचते पहुँचते फिर चढ़ाई आती है और उसके बाद नीचे झील। ठंडा नीला पानी।
नीलकंठ झील 4500 मीटर ऊंचाई पर स्थित है और हवा कि कमी आपको असहज बनाती है। गैंगस्टैंग के ग्लेशियर से पानी झील में जमा होता है। ऊपर गैंगस्टैंग कि तलहटी में एक और झील है, नीलकंठ से भी बड़ी। नैनगाहर को एक लड़का वहां कभी गया था, ऐसी भी जानकारी है कि नीलकंठ परबत कि भी परिक्रमा कि जाती है। उधर दूर चंद्रा घाटी में बिलिंग गाँव से शुरू होकर यहाँ चंद्रभागा घाटी में नीलकंठ झील पर। नीलकंठ के पीछे बड़े बड़े ग्लेशियर हैं जो पूरा साल नहीं पिघलते, अब उसमे भी कोई परिक्रमा कर सकता है तो वो सिर्फ लाहौल के लोग ही हो सकते हैं।
सौरभ और नवीन झील के ठंडे पानी में नहा लिए, मैंने उसी में अपनी भी सहमति दे दी। अब जो आदमी नीचे गर्मी में भी सोच समझ के नहाये, वो ऊपर पहाड़ों में क्यों भला नहाएगा। इतिहास पे नजर डालें तो जानकारी मिलती है मैं अपने 6 साल के ट्रैकिंग करियर में आजतक सिर्फ एक बार मणिमहेश में नहाया हूँ।
वापसी में जो नालियां थी वो नाले बन चुके थे, जो नाले थे वो खड्ड का रूप धारण कर चुके थे और जो बड़ा ठंडा नाला था वो गंगा जी से काम नहीं दिख रहा था। बड़े नाले को देख कर हमें साइंस कि याद आ गयी और हम छोटा रास्ता ढूंढते ढूंढ़ते ऊपर ग्लेशियर के पास जा पहुंचे लेकिन वहां भी कोई उपाय नहीं हुआ। अंततः फिर वही नाला लांघना पड़ा, इस बार उस नाले में पानी नहीं यमराज का श्राप बाह रहा था। पहला कदम रखते ही दिमाग सुन्न और दूसरे में उँगलियाँ गल के गिरने का आभास हो रहा था।
वहीँ कुछ प्रवासी मजदूर नाचते गाते उस नाले को पार कर गए।
चलते चलते, गिरते पड़ते नैनगाहर पहुंचे और वहां मुफ्तखोरी का नया रिकार्ड कायम किया गया।हम तीन लोगों ने 103 लोगों के बराबर खाना खाया और सुबह 6 बजे कि बस के सपने देखते हुए सो गए। अब चलते चलते नीलकंठ कि यात्रा खत्म हुई, ऐसा हमें लग रहा था। सुबह उठे तो न बस न बस का ड्राइवर। बस पिछली रात खराब हो चुकी थी और अब नैनगाहर से बाहर एक ही रास्ता था।
एक खटारा टेंपो का पृष्ठ भाग। कभी पहाड़ी रस्तों पे टेम्पो/ट्रक के पृष्ठ भाग में बैठे हैं आप?
इंसानी पृष्ठ भाग में परमानेंट डैमेज हो जाता है 😀
कितनी दूरी, कितनी ऊंचाई, GPS LOG देखना हो और अंग्रेजी में पढ़ना हो तो यहाँ पढ़ ल्यो:Nilkanth Yatra
वाह…रोमांचक यात्रा
हिंदी में यात्रा बृतान्त के लिए धन्यवाद, हिंदी में पड़ने का जो आनंद है वो अंग्रेजी में कहा
Yuddh me ghayal hue ghodon ki beizzati nahi katre…
Sab ki almaari me kankaal hote hain .. baahar aa jayenge .. 👿😈👹
गैंगस्टैंग की तलहटी में झील और नीलकंठ पर्वत की परिक्रमा के विषय ने मेरा सब्जेक्ट चेंज कर दिया है । बेशक ज़िन्दगी भी एक यात्रा है लेकिन हिमालय से बहुत बहुत छोटी ।