काली छो चलोगे?
हाँ जी चल पड़ेंगे, हमें कौन रोक सकता है।हालंकि कुछ हफ्ते पहले ही मैं बर्फ की अधिकता और रास्ता न पता होने के कारण मणिमहेश से वापिस लौटा था पर अकड़ अभी भी उतनी ही थी।
और इतनी सी प्लानिंग के साथ हम चल पड़े (मैं और पंडित जी, हिमाचल पीर पंजाल हिमालय के (शायद) सबसे कठिन दर्रे की ओर। चम्बा से लाहौल जाने के लिए कुगति- चौबिया- काली छो – दराटी – अली पटट्न और चेहनी जोत सबसे प्रसिद्ध पास हैं। इनमे से भी पहले तीन सर्वाधिक प्रयोग (गद्दियों द्वारा) में लाए जाने वाले पास हैं। क्यूंकि पंडित जी एक साल पहले काली छो की जांच पड़ताल कर चुके थे (आधे ट्रेक तक जाके) तो इस बार इस पास का चयन किया गया।
उन दिनों मेरे पास न स्मार्टफोन था और न ही मैं स्मार्ट था तो ट्रेक रिकार्ड करना या ऊंचाई नापना मेरी समझ से बाहर की बातें थीं। पास की ऊंचाई 4900 मीटर से अधिक और 5000 मीटर से कम है और अगर अनुमान लगाया जाए तो बननी माता मंदिर से त्रिलोकीनाथ (हिंसा गाँव, लाहौल) की दूरी 25 से 30 किलोमीटर तक रहेगी| ट्रेक शुरू होता है चम्बा के प्रसिद्ध बन्नी माता मंदिर से जहाँ पे देवी के ‘गूर’ (एक तरह से मेसेंजर ऑफ़ गॉड) बकरे को काट कर सीधा कटे हुए गले से मुहँ लगा कर खून पी कर भद्रकाली को बलि देते हैं| वीडियो आपको यूट्यूब पे आसानी से मिल जाएगा|
चम्बा भरमौर राजमार्ग पर ढकोग पुल से सीधा रस्ता रावी नदी से ऊपर की ओर जाता है, रास्ता ऐसा की गाड़ी का आधा टायर हवा में रहता है और सवारी की पूरी जान हवा में। तुंदाह वनक्षेत्र में एक सुंदर फारेस्ट रेस्ट हाउस है लेकिन हमें अभी तक अपनी यात्रा के लिए गाइड नहीं मिला था तो हमने बन्नी माता मंदिर के पास रुकने का निर्णय किया। पंडित जी का अनुमान था की गाँव में कोई न कोई गाइड मिल ही जाएगा और इसी अनुमान के भरोसे हम आ धमके मंदिर की सराय में।
दो बड़े ‘हंसमुख’ से लड़के हमें देखते हुए हमारे पास आए और जल्दी ही औपचारिक जान पहचान के बाद उन्होंने हमारा गाइड बनना सहर्ष स्वीकार कर लिए। थोड़ी ही देर में हम सराय के मैले कुचैले कमरे से सीधा उनके घर पहुँच गए। इसी बीच लड़कों की हंसी ‘क्लोरमिंट’ हंसी बन चुकी थी और खाना खा कर जब हम उनसे आगे का प्लान -खर्चे की चर्चा करने लगे तब तक बात हाथ से जा चुकी थी।
आगे का संवाद पढ़िए:
भाईजी आपको कहाँ जाना है?
अरे बताया तो था , काली छ…
भाईजी चिंता नी करनी आपने, मैं ले जाऊँगा आपको , लाहौल, श्रीनगर जहाँ बोलोगे वहां ले जाएंगे बावा
चरस की अधिकता या दिमागी कमी से उतपन्न हुई कमजोरी की वजह से एक लड़का बोलते बोलते ही नींद में आता-जाता जा रहा था और दूसरा सिर्फ एक ही बात कहता जा रहा था
“काली का खप्पर”
जैसे तैसे रात कटी और अगली सुबह हम बिना बताये आगे की ओर निकल पड़े, हमारा अगला लक्ष्य था गाँव भादर जहाँ तक पंडित जी पिछले साल ट्रेक करते हुए आए थे लेकिन गाइड न मिलने के कारण उनको वापिस लौटना पड़ा था। वहां स्कूल में (शायद) चपरासी के पद पर कार्यरत ‘मास्टर’ मदन लाल जी ही हमारी आखिरी उम्मीद थे
मास्टर मदन लाल: जीवन परिचय
मदन लाल जी बीड़ी के शौक़ीन हैं, मुर्गा शराब भी पसंद करते हैं। घर के पास स्कूल है, तो घर से ही स्कूल चला लेते हैं। कभी काली छो गए नहीं लेकिन हमसे कह दिया की मैं तो आता जाता रहता हूँ। मदन लाल जी हंसमुख आदमी हैं, लेकिन सिर्फ तब तक जब तक उनकी फ़ट नहीं जाती, एक बार उनकी हालत पतली हो जाए तो फिर मदन लाल जी गुस्सा करते हैं और कभी कभी ऊंचाई पे रुआंसे भी हो जाते हैं|
घर में खाना खिला कर हम तीनों दोस्त निकल पड़े, बंसर गोठ की ओर।
अगर बेवकूफी का कम्पटीशन हो जाता तो मदन लाल मुझ से मुहँ की खाते। अब आप बताइये, पीर पंजाल के सबसे बड़े ट्रेक पे अगर कोई लैपटॉप बैग, जीन की पैंट, और स्पोर्ट ‘शूज’ लेकर जाए तो उसे वैसे ही ‘हाल ऑफ़ फेम’ में जगह दे देनी चाहिए।
और मैं ये बात गर्व से नहीं कह रहा हूँ, की देखो मैं तो बिना तयारी, बिना सामान के, काली छो पास जा आया|
इस तरह की तयारी के साथ किसी भी ट्रेक पे जाना, चाहे वो 5000 मीटर हो या 3500 मीटर, बेवकूफी है , जानलेवा हरकत है, न सिर्फ अपने लिए परन्तु अपने साथियों के लिए भी।
बसंर गोठ तक पहुँचते पहुँचते हम दोनों का बाजा बज चुका था और मदन लाल ने बीड़ी फूंकने का विश्व कीर्तिमान स्थापित कर लिया था। हमारा गाइड हमसे ‘minimum 500 meters only’ की दूरी बना कर चल रहा था, तो इस तरह बंसर गोठ तक पहुँचते पहुँचते पूरे राते में गाइड हमें कहीं भी नहीं दिखा। बंसर गोठ में एक गुज्जर का कोठा था, थोड़ी लकड़ी भी पास थी, जहाँ हमने रात बिताने का निर्णय किया, दोपहर के 3 बजे रहे थे और मैं सोना चाहता था।
वहीँ घास में लेटे लेटे हम दोनों को नींद आ गयी और दूर से आती सीटी की ध्वनि ने हमारी नींद खोली। गुज्जर, जिसकी नयी नयी शादी हुई थी, वो अपनी बीवी के साथ हमें उनके कोठे (गुज्जर के जंगल बियाबान के घर को कोठा कहते हैं) पे आने के लिए आमंत्रित कर रहा था। न्योता अच्छा था, खाना भी पका पकाया मिलता, लेकिन मुसीबत केवल एक थी की गुज्जर का कोठा वो दूर पहाड़ी पर था, जहाँ हम रुके थे वहां से 2 किलोमीटर दूर और कम से कम से 200 मीटर ऊंचा।
अब पंडित जी ठहरे पंडित जी, उन्होंने झोला उठाया और गप्पें हांकते हुए चलने को तैयार हो गए। मदन लाल मेरे आँख खोलने से पहले ही ढाई किलोमीटर आगे जा चुका था। तक हार के मुझे भी उठना पड़ा और चलते चलते रात के (शायद) आठ बजे हम गुज्जर के कोठे में पहुँच गए।
कोठा क्या वो एक छोटा राज्य था। डेढ़ दर्जन बच्चे, दो दर्जन भैंसे, तीन दर्जन बकरियां, मतलब वहां वैसा माहौल था जैसा बिजली बोर्ड के दफ्तर में बिल जमा करने के दिन होता था। घुसते ही मैंने कोई भी करने से मना कर दिया, और लक्क्ड़ चाय(भैंस/बकरी के दूध में नमक डाल के बनाई गयी चाय) के मजे लेने लग पड़ा।
अब पंडित जी ठहरे पंडित जी, उन्होंने अपने लिए अलग बर्तन की मांग की जो तत्परता से पूरी की गयी। रोटियां पंडित जी ने बनाई, और सब्जी मदन लाल ने, और खाने का काम मैंने – इस तरह हम सबने मन लगाकर अपनी अपनी जिम्मेदारी निभाई।
रास्ते में गुज्जर लोग शादी के गीत गए रहे थे जिनमे से एक गीत के बोल इस प्रकार हैं:
“इन्हां काफिरां दा बेड़ा गर्क हो अल्लाह” और जैसे ही ये गाना बजा अपने को बलि के बकरे सी फीलिंग आ गयी, जिस पर पंडित का अभी भी यहीं कहना था की ‘सब भगवती की इच्छा है” जिस पर मदन लाल का कहना था की ” बीड़ी पियोगे?”
गुज्जर लोगों के साथ मज़ेदार समय बिता के अगली सुबह हम निकल पड़े, अपने अगले पड़ाव की ओर : गद्दी के डेरे की ओर, जहाँ गद्दी होगा या नहीं इस बात की हमें कोई जानकारी नहीं थी”
मदन लाल पिछली रात के दिए हुए सब ‘लेसन’ भूल चुका था और अब वो उसैन बोल्ट से भी तेज गति से भाग रहा था। एक रिकार्ड मदन लाल ने बनाया-तेज़ भागने का, और एक रिकॉर्ड मैंने-मदन लाल को गालियां देने का। ‘दिग्गू के गोहड़’ मंदिर तक पहुँचते पहुँचते मौसम खराब हो चुका था लेकिन अब हम पास के बिलकुल नीचे आ चुके थे, और थकान ‘बैकग्राउंड’ में जाती जा रही थी।
काली छो पास के लिए बन्नी माता से लांघा (passage) मिलता है, तीन लांघे मिलते हैं, और हर लांघे में कुछ गद्दी समूह जाते हैं। जिसको लांघा नहीं मिलता वो पास नहीं लांघता, यहीं इस ओर चम्बा के चरागाहों में बैठा रहता है। और इसे हमारे किस्मत कहिये की जब हम गद्दी के डेरे में पहुंचे तो एक गद्दी था जिसे लांघा नहीं मिला था और अब वही हमारा तारणहार था। सामने काली छो के ऊपर बादल मंडरा रहे थे और नीचे एक बड़ा ही विशालकाय ग्लेशियर (ice fall) था जिसे ‘काली का खप्पर’ कहते हैं।
यहाँ पास के बेस कैम्प के रहने, पास को चढ़ने, और पास से वापसी के कुछ नियम हैं, जैसे की:
खाना बनाने से पहले दिग्गू देवता की पूजा
खाने में नमक तभी डाला जाएगा जब खाना बन जाएगा
खाना एक बार में पूरा खाना होगा, बीच में उठ नहीं सकते
पास की ओर मुहँ करके पेशाब नहीं करना
काली के खप्पर और पास की ऊंचाई देख कर मदन लाल जी हथियार डाल चुके थे और अंततः उन्होंने हमसे सच कह दिया की मैं कभी पास तक नहीं गया हूँ, जिसे सुनकर हम दोनों ने अपना सर पकड़ लिया। लेकिन हेड गद्दी ने अपने जूनियर से आग्रह किया के तुम इन्हें छोड़ आना, बस पास तक मत जाना।
मास्टर मदन लाल अब भी बदहवास से थे लेकिन अंततः पंडित जी के समझाने पर उन्होंने भी चलने का अनमना निर्णय ले ही लिया। सुबह जूनियर गद्दी, जो १९-२० साल का लड़का था, हम सबको लेकर ऊपर पास की ओर बढ़ चला।
पंडित जी सबसे आगे, फिर मास्टर मदन लाल, और सबसे अंत में मैं – कभी अपने लैपटॉप बैग को ठीक करता हुआ तो कभी अपनी पतली कमर से नीचे जाती जीन्स को संभालता हुआ।
गद्दी के डेरे से पास बिलकुल सामने दिखता है लेकिन जाने के लिए एक बाएं हाथ का U बनाना पड़ता है। तो आधे रस्ते तक तो पास दिखता है, लेकिन जैसे ही 5 हजार मीटर से ऊपर चढ़ते हैं, पास दिखना बंद हो जाता है और बर्फीली पगडंडियों पे चलना पड़ता है। और जब घूम के दुबारा पास दिखना शुरू होता है, तो नीचे दिखता है खप्पर। जरा सी गलती और नीचे काली के खप्पर में एक और एंट्री हो जाती है। वैसे मैंने आज तक वहां सिर्फ भेड़ बकरी के गिरने की बात सुनी है और किसी इंसान के गिरने की खबर नहीं है।
ऊपर पहुँच के मास्टर जी और पंडित जी ने धूप बत्ती की जबकि मैं बदहवासी की हालत पे अपने बैग और कपड़ों को कोसता हुआ लेटा रहा।
सामने लाहौल की पहाड़ियां थी और नीचे कहीं दूर चंद्रभागा इन ऊँची पहाड़ियों को काटती हुई जा रही थी। बड़े बड़े पत्थर के बीच रस्ता था जिसपे खूब बढ़िया धूप पड़ रही थी। वहीँ धूप में अपन सो गए और आस पास टूटते ग्लेशियर की आवाज़ से ही नींद घंटे दो घंटे बाद खुली।
चलते चलते मास्टर मदन लाल जी से मैंने क्षमा मांगी की आपको जो कुछ भी गलत कहा हो ऊंचाई पे, उसे भूल जाएँ।
मास्टर मदन लाल ने हँसते हँसते कहा, “बीड़ी पियोगे”
ये यात्रा 2012 में की गयी थी, मुझसे किसी ने पूछा की ये ‘डिटेल्स’ याद कैसे रखते हो?
तो इसका जवाब है की वैसे तो मेरी याददाश्त बहुत कमजोर है, लेकिन पहाड़ों में मुझे सब याद रहता है, अपने मोबाइल पे मैं टुकड़ों में दिन के मुख्य बिंदु नोट कर के रखता हूँ और बाद में कड़ियाँ जोड़ने में आसानी रहती है।
किसी को अंग्रेजी में पढ़ना हो तो यहाँ पढ़ ल्यो: Kali Cho Pass Yatra
वाह…मजा आ गया पढ कर।अच्छा जे बताओ बीड़ी पिओगे😀
पंडित जी वही है या कोई और जो दो साल पहले हादसे का शिकार हो गये थे…
हिंदी में यात्रा लेख पढने का अलग ही सुख है
ऐसे गाइड और ऐसे मास्टर साब पूरे हिमालय में हेडलैंप और आइस-एक्स लेकर भी ढूँढोगे तो भी न मिलेंगे बावा, जो आपको चंबा से सीधा श्रीनगर ले जाएँ । बढ़िया लेख ।
So beautiful 😀
वही पण्डित जी हैं
तरूण भाईजी , भले ही आपने अपनी यह साहसिक और दुरूह ट्रैक 2012 में की है, पर इसकी रोचकता और सजीवता आज भी वैसी ही है ,और भले ही ट्रैक के शुरू में, मैं आपके साथ ना था पर अंत में याद रखने के लिये आपका शुक्रिया । सच में, आपकी यादाश्त बहुत अच्छी है ।