यात्रा समाप्त होने पे जैसे ही ट्रेन ग्वालियर से छूटी, मैंने सोचा इस यात्रा वृत्तांत को अंग्रेजी में लिखूंगा | लेकिन जब देश की सबसे तेज़ ट्रेन (हबीबगंज शताब्दी) ही 11 घण्टा देरी से आए तो ऐसे बहके बहके विचार मन में आ ही जाते हैं | दूसरा दिल्ली पहुँचते पहुँचते सर्दी और धुंध इतनी बढ़ गई की रजाई पे पकड़ बढ़ती चली गई और अंग्रेजी पीछे छूटती गयी | और अंग्रेजी के वो नए नए शब्द जो मुझे चन्देरी की अनेकों बावड़ियां और ओरछा के वृहद मंदिर देख कर सूझे थे, वो कुछ दिल्ली की धुंध में खो गए और बाकी कसर सुंदरनगर की अंधाधुंध धुंध ने पूरी कर दी |
दूसरा पड़ाव- ओरछा | तीसरा पड़ाव- बाटेसर
मध्य प्रदेश से अपना प्रेम पुराना है, 2014 में जबलपुर – छत्तीसगढ़ जाना हुआ और तब से (कुछ सालों तक ) दिसम्बर जनवरी मध्य प्रदेश में घूमेंगे ऐसा प्रण लिया गया |
चंदेरी (मध्य प्रदेश) में बावड़ियाँ हैं, पुरानी, सुन्दर, बहुमूल्य ‘वाटर रिसोर्स इंजीनियरिंग’ का अकल्पनीय नमूना। कुछ जंगलों में छिपी हुई, कुछ नए बसते हुए गाँवों के बोझ तले दबती हुई, और कुछ बीच शहर में टूटते हुए किले की दीवारों की ओर ताकती हुई|
चंदेरी जाने के लिए ललितपुर (पुत्तर प्रदेश) स्टेशन पर ट्रेन से उतरते ही ,आगे बस से जाना है। बस 40 सीटर है, चार सो पचहत्तर लोग खड़े हैं, बैठों का कोई हिसाब नहीं है। बेतवा नदी पार करते ही पुत्तर प्रदेश खत्म होता है और मध्य प्रदेश शुरू। ऐसा लगता है नेपाल से भारत आ गए, चौड़ी सड़कें, हरे भरे नजारे।अपने पीछे वाली सीट पे 4 घण्टे से फाइट चल रही है, की तीन सीटर पे अधिकतम कितने बैठाए जा सकते हैं- अभी 5 बैठे ही हैं-इंटीग्रेशन के कांसेप्ट लगाए जा रहे हैं।मध्य प्रदेश में घुसते ही ये फाइट भी बन्द हो चुकी है| लेकिन बस की गति पर उतरे-चढाई का कोई फर्क न पड़ा, वही 20 किलोमीटर प्रति घण्टा|
चन्देरी थोड़ी ऊंचाई पर है, मध्य प्रदेश टूरिस्म का होटल ‘ताना बाना’ चन्देरी से चन्द मोड़ पहले आता है, पीछे एक बाँध सा दीखता है और उसके साथ नीला सा जलाशय, दिमागी ‘नोट’ बना लिया है की शाम को यहाँ आके फोटो जरूर खींचेंगे| ताना बाना देखने से ही महँगा लग रहा था, नहीं तो वहीँ रह लेते, और अच्छा रहा की नहीं उतरे, चंदेरी ख़ास से 3 किलोमीटर दूर, आने जाने में ही अपना ‘ताना बाना’ बिगड़ जाता |
साथ बैठी बूढी अम्मा ने कहा था चंदेरी में भी खूब ‘डीलैक्स’ होटल मिलेंगे, अब डीलैक्स कितना महँगा होगा इस सोच में पड़ जाता हूँ | चन्देरी बस अड्डे पे उतरते ही थोड़ा सा धक्का लगा, बस अड्डा क्या बस स्टॉप भी न कहा जाएगा | सामने कूड़े का ढेर है, उसके साथ केले की रेहड़ी| विपिन गौड़, मेरा दिल्ली का मित्र जिसने मुझे बावड़ियों से परिचित करवाया, ने कहा था चंदेरी में 500-5000 तक का कमरा मिलेगा, तो अब 500 वाले कमरे की खोज शुरू हो गयी|
‘ट्रिपएडवाइजर’ कहता है ‘होटल श्रीकुंज’ बढ़िया रहेगा, ‘श्रीकुंज’ को फोन किया तो सामने वाले ने अंग्रेजी में बात करी,” गिव मी योर एग्जेक्ट लोकेशन” | दूसरा धक्का, एक तो चन्देरी ऐसा , ऊपर से अंग्रेजी में ‘लोकेशन’, लगा हजार का कमरा होगा, और बीस रूपये की चाय | ‘श्रीकुंज’ वाले ने कहा है पैदल आ जाइये, 10 मिनट में पहुँच जाएंगे| भला आदमी है, अंग्रेजी बोलता है तो क्या हुआ, मैं भी तो कभी कभी अंग्रेजी में बात करता हूँ |
450 में कमरा पक्का, 50 बच गए, नहाने को गरम पानी मुफ्त, हिमाचल में तो सर्दियां आते ही प्रति ‘मग’ पैसा वसूला जाता है|
सामने बादल महल है, उसके ऊपर किला है, बादल महल के सामने एक मस्जिद है, मस्जिद के पीछे दो बावड़ियां हैं, उन बावड़ियों के सामने दो और बावड़ियां हैं, दूर एक पहाड़ दीखता है, कटा हुआ सा, उसका नाम ही ‘कटी पहाड़ी’ है | कटी पहाड़ी के पीछे एक तलाब है और सिंधिया राजाओं का महल| ताना बाना के पास दो और बावड़ियां हैं, और चंदेरी की सबसे बड़ी बॉडी ‘बत्तीसी बावड़ी’ जंगल में किसी तीसरी ही दिशा में हैं| दिन कुल मिला के एक है अपने पास |
उधेड़बुन है, झल्लाहट है, क्या देख लूँ और क्या छोड़ दूँ | विपिन ने कहा था कल्ले भाई से मिलना, वो सब दिखा देंगे | कल्ले भाई को फोन मिलाता हूँ, बंद आता है| एक तरह से अच्छा है, नहीं तो सब कल्ले भाई की नजर से देखना पड़ता |
बादल महल से शुरू करता हूँ, नाम ऐसा क्यों है, मालूम नहीं, हर भरा महल है, कुछ ख़ास नहीं है| मुझे बावड़ियां देखनी हैं, कहाँ होंगी? किले के अंदर? किले में पढ़ा था मुस्लिम आतातियों से बचने के लिए राजपूत महिलाओं ने ‘जौहर’ किया था| ऊपर किले में ही एक खूनी दरवाजा भी है| अब जाता हूँ तो कब तक लौटूंगा, शाम होने को है, न धरती दिखेगी, न अम्बर | ललितपुर के बस वाले को गाली देता हूँ, बाहर निकलता हूँ | ताना बाना के ‘दिमागी नोट’ को ठेका शराब अंग्रेजी के बाहर फाड़ फेंकता हूँ , एक ‘क़्वार्टर’ देना कहता हूँ ठेके वाले से, खुद को कहता हूँ ‘एक दिन और रुकुंगा’ |
Jauhar Monument Chanderi Fort
अब चलते हैं सुबह सुबह चकला बावड़ी देखने, ये रही श्रीकुंज के बगल में| चौकीदार आठ बजे से पहले गेट नहीं खोलता, लेकिन चश्मा लगे बड़ी दाढ़ी वाले को हिंदी बोलता देख ख़ुशी ख़ुशी गेट खोलता है|
इमारतों के प्रतिबिम्ब इमारतों से खूबसूरत दीखते हैं, क्योंकि उनमे शायद उनके ‘दोष’ छिप जाते हैं| ये बावड़ी सिर्फ महारानियों के लिए थी, अब चमकती धूप में सिर्फ महारानी का मकबरा चमकता है, जो बावड़ी में घुसते ही सामने दीखता है| पानी में पत्थर के बने मकबरे का अक्स चमकता है, लेकिन महारानी नहीं दिखती|
चौकीदार से और बावड़ियों का पता पूछता हूँ, वो इधर उधर इशारा करता है, यहाँ भी है- वहां भी है | जांच पड़ताल पे मालूम पड़ता है, सच कह रहा था| एक बावड़ी बस्ती के बीच है, कचरे गन्दगी से भरी हुई, एक चकला बावड़ी के बाहर है, उसका भी वही हाल है |
कटी पहाड़ी की ओर बढ़ता हूँ, एक मैले तलाब में किले का अक्स दीखता है, कुछ दूर चल के एक और बावड़ी आती है, सड़क से कटी हुई सी| बावड़ी का नाम है गोल बावड़ी, और देखने में एकदम गोल| अगर मैं ‘ऑटो कैड’ पे भी एक गोला बनाऊं, तो उतना गोल नहीं बनेगा| ये इतनी गोल है की वाइड एंगल’ लेंस में लेट के, टेढ़े होके भी पूरी नहीं दिखती| बेहद खूबसूरत, रुक सकते हैं यहाँ लेकिन सामने कटी पहाड़ी है, जांच पड़ताल करनी तो होगी की क्यों कटी, किसने काटी , काटी कैसे |
पहाड़ी यू कटी है जैसे किसी ने JCB चला दी हो| आज से 500 साल पहले ये पहाड़ी काटी गयी-1495 में , बुन्देलखण्ड और मालवा को जोड़ने के लिए| कटी हुई पहाड़ी की जगह ‘गेट’ बनाया गया, बिना दरवाजे का| कहा तो जाता है की एक रात में ये पहाड़ी काट कर गेट बनाया गया, और जल्दबाजी में गेट का दरवाजा न बन सका. तो ‘पाजी’ गवर्नर ने बनाने वाले को एक फूटी कौड़ी न दी| गेट 80 फुट का और हरकत दो कौड़ी की|
लौटना हो ही रहा था की एक बुजुर्ग मिल गए, बीड़ी पी रहे थे तो बीड़ी मांग के जला ली| बातों बातों में पता चला की दूसरी ओर एक महल है, तलाब है| दो किलोमीटर भर की दुरी पे, चल निकलते हैं सोच कर चल निकला| पक्की सड़क के बीच एक गाँव आता है, नाम भूल गया, वहां जाके जादू से सड़क कच्ची हो जाती है, गरीबी घरों के दरवाजों में सिमट नहीं रही हो जैसे| बातचीत पे मालूम पड़ता है की गाँव में न लैंडलाइन है न मोबाइल| अपना फोन देखता हूँ तो उसमे भी सिगनल नदारद| इन्हें हिमाचल से सीख लेनी चाहिए, पहाड़ी पे बसे एक एक गाँव में बिजली-पानी-मोबाइल-डिश टीवी की सुविधा है, यहाँ मैदानों में क्यों कर समस्या हो |
तालाब और महल देखने तक मन कसैला हो चुका है, गाँव का नाम शायद रामनगर है| एक तरफ सिंधिया महल, जिसके खण्डहर को भी धरोहर कह रहे हैं, दूसरी तरफ जिन्दा लोगों का गाँव जहाँ अब भी सुविधाओं का अभाव| वापसी में ट्रैक्टर ढूंढता हूँ, मिलता नहीं है, पैदल ही कटी पहाड़ी तक पहुँचता हूँ, तो एक ऑटो मिलता है|
अब एक ऑटो वाले को पकड़ना होगा, सस्ता-मजबूत-और-टिकाऊ, जो सारी बावड़ियां दिखा दे| एक मिलता है, बोलता ज्यादा है लेकिन सब बावड़ियां जानता है| बत्तीसी बावड़ी चलते हैं, जंगल के बीच है, ऐसा लगता है जैसे ऑटो से उतरते ही ट्रेक शुरू करना होगा| बत्तीसी इसलिए की इसके बत्तीस तल हैं, हो भी सकता है-कोई बड़ी बात नहीं, गुजरात में भी ऐसे अचंभित कर देने वाली बावड़ियां हैं, मैं एक तल ही नीचे जा पाता हूँ, इन्टरनेट पे तीन चार तल नीचे तक की फोटो भी है| मजा नहीं आया, अब कभी गर्मियों में जाना हो तो मजा आए|
यहाँ से पचमढ़ी बावड़ी, बावड़ी क्या मंदिर कम मकबरा कह लो| बावड़ी सुंदर तो है, लेकिन अगर वहां एक आदमी कच्छे धो रहा था, पीले और हरे रंग के, उसके पीछे बाकी के लोग अपनी बारी के इन्तेजार में थे| क्या देखते और क्या फोटो खींचते |
सीधा ताना बाना वाली नदी पे चला जाए, चलते चलते बाँध आता है, बाँध पे चढ़ते हैं, तो ऑटो वाले को मुड़ने को कह दिया, मुड़ चलो-हिमाचल में भी बाँध ही दीखते हैं , खेतों में ले चलो, एकदम नदी के पास. जहाँ नदी बिना बंधे बह रही हो | खेती हो रही है, सामने सतपुड़ा-विंध्याचल के परबत पठार बन रहे हैं, एक के बाद एक | मैं भी पजामा उठाता हूँ, और घुटनों कीचड़ में कूद पड़ता हूँ | लोग-बच्चे-बैल सब मुझे देख के खुश हो रहे हैं, और मैं उन्हें देख के | ख़ुशी का माहौल है, ऑटो वाला व्याकुल है की और कितनी देर लगेगी |
चलते चलते फिर शाम होने को है, किला फिर रह न जाए| सूरज ढलने से पहले किले पे पहुँचता हूँ, तो दूर दूर तक मन्दिरों-मकबरों-मस्जिदों का साम्राज्य है| दूसरी ओर कटी पहाड़ी है, सूरज ढलता ढलता कटी पहाड़ी में छिप जाता है| नदीम जाफरी मिलते हैं, लन्दन से पढ़े हैं-चंदेरी में गाइड हैं| अपनी गाडी में लिफ्ट देते हैं, लेकिन हमें तो खूनी दरवाजे से जाना है | अँधेरा है-हल्का डर है |
अब आज का दिन भी गया, और नदीम साहब ने कहा है कोषक महल देखे बिना न जाइये, वो मेरी (जाफरी की, मेरी नहीं) महबूबा है | अब चंदेरी में ही सारी छुट्टी न लग जाए, और किसी और की महबूबा को हम क्यों देखें| श्रीकुंज पहुँचते ही पता चला की मेमोरी कार्ड भर गया है, नया लीजिये या खाली कीजिये| जाफरी साहब को फोन मिलाया तो तुरन्त मिलने चले आए| जब कार्ड खाली हुआ तो उसके बाद मिला ही नहीं, खो गया – मेरी तरफ से चंदेरी को भेंट |
अब नया लाओ | जाफरी साहब उसका भी इंतेजाम करते हैं ,रात के दस बजे| आदमी खुद ऐसा है तो महबूबा भी गजब होगी|
सुबह गहरी धुंध में उठते ही कोषक महल के ओर | और अब मैं कहूंगा की महबूबा हो तो ऐसी ही | खण्डहर है, लेकिन बला की खूबसूरती | बला की खूबसूरती का मतलब है की चाहे जान चली जाए- पर मुहब्बत बनी रहे , बिलकुल वैसा ही| महल के झरोखों से धुंध छनती हुई आती है और टूटी हुई छत से बाहर चली जाती है, जैसे किसी को ढूंढती हुई बदहवास सी |
जाते जाते एक बावड़ी और देख लूँ, सोचते हुए बाजार में घुसता हूँ| बावड़ी का नाम है मूसा बावड़ी |मूसा बावड़ी, गोल बावड़ी से भी दो कदम आगे| मुझ अभागे सिविल इंजीनियर को अगर ‘सॉफ्टवेयर’ पे भी ऐसा डिजाईन बनाने को कह दो तो मैं न बना पाऊंगा |
चंदेरी अभी भी पूरी नहीं देख पाया हूँ, शायद एक दिसम्बर और लगेगा| वैसे तो चंदेरी साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन अपने को न साड़ी पसन्द, न साड़ी वाली, इसीलिए जिक्र ही नहीं किया |
‘केंट RO’ के इस देश में कभी ऐसी भी बावड़ियां थी, ये एक अजूबे से कम नहीं है|
नदीम जाफरी -9907262007 होटल श्रीकुंज- 075472 53225
ताना-बाना में ठीक न रुके । ओरछा में फिर से प्रतीक्षा रहेगी । चंदेरी आपके साथ घूमने में मजा आया ।
बहुत बढ़िया तरुण हिंदी पे बड़ी अछी पकड़ हो गयी है।
अत्यंत सुन्दर लेख दिल खुश हो गया।
Best treat before sleep…..👌👌Thank you Sir….👍
Beautifully jotted Tarun bhai. Wish I had writing skills like you.
Kya khoob likha hai aapne…
Nice article. Good to see that cultural heritage is still alive. The way people used to carve stones/buildings in ancient era is really commendable. See this Koshak Mehal …just OMG.
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Thanks & Regards,
Virender Singh Rana.
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