जब कभी अपना दिल्ली जाना होता है, दिल्ली में अपना एक ही ठिकाना रहता है, नीरज जाट का घर |
नीरज दिल्ली में न भी हो तो भी वहां जा धमको, छोटा भाई धीरज खिला पिला के खूब सेवा करता है | दूसरे घर कश्मीरी गेट के पास है, तो न मेट्रो में घण्टों खड़े रह के ‘न्योडा’ पहुँचने का झन्झट और न ही किसी से मिलने की समस्या, ‘ईस्ट दिल्ली’ में वैसे भी कोई रहना पसन्द नहीं करता, सब को गुड़गाव गुरुग्राम-न्योडा ही भाता है|
और अपने को भाता है अकेला कोना, शास्त्री पार्क के मेट्रो भवन की पांचवीं मंजिल का|
दूसरी ख़ास बात है नीरज की लाइब्रेरी, जिसमे नयी पुस्तकें जुड़ती रहती हैं, और मैं उनपे अक्सर हाथ साफ़ करता रहता हूँ | अधिकतर किताबें हिंदी में हैं, और हिंदी पढ़ने की स्पीड अपनी उसैन बोल्ट से थोड़ी सी ही कम है|
तो दिसम्बर में दिल्ली जाने से पहले नीरज ने फेसबुक पे एक छोटा लेकिन बढ़िया सा ‘बुक रिव्यू’ लिखा , पुस्तक का नाम था “अरे यायावर, रहेगा याद?” (अमेजोन| राजकमल प्रकाशन)
अज्ञेय जी की एक पुस्तक है – “अरे यायावर, रहेगा याद?”
ऐसा जादुई नाम मैंने कभी नहीं पढ़ा। पहले मैं सोचता था कि इसका नाम ‘अरे! यायावर रहेगा याद’ है। लेकिन जब पुस्तक हाथ में आयी और ‘!’ न देखकर आखिर में ‘?’ लगा देखा तो एकदम जादू-सा एहसास हुआ। इतना प्यारा नाम! मानों आप कहीं दूर-दराज में घूमने गए और रम गए। वापस चलते समय आप उन लोगों से विदा लेते हैं और वादा करते हैं कि दोबारा आयेंगे। तो स्थानीय लोग (या कोई युवती) कहते हैं – “अच्छा, भूल तो नहीं जाओगे? रहेगा याद?”
उम्दा यात्रा-वृत्तान्त है। वे ब्रिटिश सेना में फौजी थे। 1945 के आसपास उन्हें ट्रक लेकर परशुराम से पेशावर जाना था। ट्रक के पहिये को आधार बनाकर पहिये की आत्मकथा लिख दी , जो एक यात्रा-वृत्तान्त ही है। इस समय तक पेशावर की तरफ हिन्दू-मुस्लिम दंगे आरंभ हो चुके थे। इन्हें गोली भी लगते लगते बची।
मैं अज्ञेय जी को एक कवि ही मानता था, लेकिन इस पुस्तक को पढ़कर पता चला कि वे अन्य विधाओं में भी पारंगत थे। अपने समकालीन लेखकों की तरह उन्होंने क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग नहीं किया, बल्कि जैसी हिंदी आजकल की ब्लॉगिंग में लिखी जाती है, ठीक वैसी ही हिंदी का प्रयोग किया। जरुरत पड़ी तो अंग्रेजी के शब्द भी लिख दिए और स्थानीय बोलचाल के शब्द भी।जैसे-
“यायावर का टंडीरा तीस्ता के पुल की ओर बढ़ा।”
“दिनभर टांट सिकती रही।”
नीरज के घर बैठ के एक दिन में एक किताब खत्म की जा सकती है और मैं सिर्फ एक दिन के लिए ही वहां गया था तो सिर्फ ‘चाय चाय’ (चाय चाय के बारे में फिर कभी) ही पढ़ पाया और ‘अरे यायावर’ रह गयी |
इसलिए लीजिये, अरे यायावर के बारे में आप भी जानिए:
काली सफेद किताब है, आजकल की रंग बिरंगी किताबों से तो एकदम दूर दूर तक कोई नाता नहीं है | लेकिन किताब के अंदर जैसे एक खजाना दबा पड़ा हो | कहानी शुरू होती है परशुराम कुंड से, जो अब नहीं है | नहीं है मतलब काल का ग्रास बन गया, ब्रह्मपुत्र का, लोहित नदी का, भूकम्प का|
परशुराम से तूरखम
पहली कहानी, पहला पन्ना – टायर की जुबानी| कहते हैं की सृष्टि की सर्वोत्तम आकृति चक्र है क्योंकि उसका आदि अंत कुछ नहीं है | और ये पहली कहानी यायावर नहीं परन्तु यायावर गाडी का टायर कहता है | आसाम के जंगलों में, कभी ब्रह्मपुत्रा के साथ साथ तो कभी नौका में ब्रह्मपुत्रा के इस पार से उस पार| क्योंकि कहानी यायावर नहीं, गाडी का टायर कह रहा है, तो कभी बातें सीधे न होके गोल मोल हो जाती हैं | अब असम से पंजाब (अविभाजित भारत का पंजाब) जब यायावरी करनी हो तो गोल टायर का भी सर घूम जाना बड़ी बात नहीं है|
और चलते चलते बात जा पहुँचती है तूरखम तक, (आज का) पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान बॉर्डर तक| एक ओर ब्रह्मपुत्रा का वेग, तो दुस्ती तरफ खैबर पास के उस तरफ की दुनिया, और यहाँ से वहां घूमता हुआ यायावर और उसका पहिया| ऐसा सिर्फ अविभाजित भारत में ही सम्भव था और आज के युग के घुमक्कड़ सिर्फ इसे दूर से देख सोच सकते हैं , पास से देखने के लिए ‘अरे यायावर’ एक बढ़िया साधन सिद्ध हो सकती है |
या फिर कभी हमारे यहाँ राहुल बाबा प्रधान मंत्री बन जाएँ, उस तरफ जूनियर भुट्टो का सिक्का चल जाए, और मूर्खता के बाँध ऐसे खुलें की खैबर से लेकर मुजफर्राबाद तक जिसको जहाँ जाना हो, बे-रोकटोक जाए|
कौंसरनाग झील- कॉस्मिक किरणों की खोज में
रस्सों के पुल से झेलम पार ‘मुजफर्राबाद ‘ के गुरद्वारे में रात काटी और फिर वेगवती कृष्णगंगा में स्नान कर के उडी बारामुल्ला पार किया….
और इस तरह यायावर का पहिया चल पड़ा हफ्तों लंबी कौंसरनाग की यात्रा पे | 11 हजार फुट पे छिपी हुई ये झील, सितम्बर का नजारा और झील में यत्र तत्र भटकते हुए कॉस्मिक किरणों के दीवाने | यायावर का पहिया तो अब साथ छोड़ चूका था लेकिन पहिये का स्थान अब एक नौका ने ले लिया था | जिसे घंटों कौंसरनाग के बर्फीले पानी में खेना हफ्तों तक दिनचर्या बन गया था | कॉस्मिक किरणों की जितनी भी जानकारी एकत्रित हुई वो सब अंततः सिर्फ एक फोटो में सीमित रह गयी लेकिन यात्रा के ठन्डे-बर्फीले किस्से आपको भी कौंसरनाग की यात्रा पे ले ही जाएंगे|
और यायावर हठी होते हैं, ये किरणों की खोज में निकले इन घुमक्क्ड्डों से बेहतर कौन सिखा पाएग
कॉस्मिक किनारों के अभियान का स्मारक फोटो ही हमारे पास बचा है |
पांच दिन हो गए, रसद नहीं आयी
कल आएगी, आ जाएगी, सोच कर छठा दिन भी बीता, सातवां भी, आठवां भी, नवां भी| अब रसद चूक जाने पर सिर्फ दूध ही रह गया|
देवताओं की अंचल में और मौत की घाटी में यायावर कुल्लू-रोहतांग की घाटियों की संक्षिप्त सैर करता है या अपनी सैर का संक्षिप्त विवरण देता है और वहां से एक बार फिर ब्रह्मपुत्रा की गहराइयों में|
माझुली
पुर्वोत्तर भारत की कहानियां बहुत सुनी हैं, लेकिन जैसा यायवर ने ‘माझुली’ दिखाया है वैसा न कभी सुना, न ही कभी सोचा | नदी के बीचों बीच एक द्वीप, ७० मील लंबा और १० मील चौड़ा| ध्यान रहे, यायावर ने ये सब यात्राएं आज से कई दशक पहले की हैं , हो सकता है माझुली अब ऐसा न रहा हो, हो सकता है उस द्वीप पे अब नौका नहीं, मोटर गाडी जाती हो , लेकिन अब तो अपन जाके ही देखेंगे |
की माझुली आज भी वैसा ही दीखता है जैसा यायावर ने अनुभव किया था, क्या ब्रह्मपुत्र आज भी वैसे ही ‘माझुली’ को सब ओर से घेरे रहती है?
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मेरा कम्फर्ट जोन हिमाचल है, न कभी बाहर के पहाड़ देखने की ईच्छा हुई और न ही कभी मन ही माना|
लेकिन ‘अरे यायावर’ ने असम की अलख जगा दी है | और ऐसी ही किताब को मैं एक ‘बेहतरीन किताब’ की श्रेणी में रखूँगा|
मुझे अच्छा लगा !
मैं फिलहाल माजुली के नजदीक हूं लेकिन गया नहीं हूं अगले एक दो सप्ताह मे माजूली जाऊँगा। तब मैं यहां टिप्पनी करूंगा उस समय और अब की माजुली !
अब हमें भी उत्कंठा हो गयी । यायावर को पढ़ने की ।
पुस्तक का नाम पहले बहुत सुन रखा है, पर अब पढना ही पड़ेगा!
गज़ब कि किताब है