मंडी से कांगड़ा जाते हुए बीच रस्ते में आता है पालमपुर। करगिल युद्ध में हिमाचल के दो जवान, विक्रम बत्रा और सौरव कालिया, दोनों पालमपुर के रहने वाले थे। कई दफ़े, आते जाते कई बार मन किया कि इस बार पक्का इनके घर जाएंगे, इनके माता पिता से मिलेंगे।
लेकिन हर बार हिम्मत जवाब दे गयी। क्या बात करेंगे, क्या कहेंगे, सौरव कॉलिया के माँ बाप तो अब तक अदालतों के चक्कर काट रहे हैं, उन्हें किस मुहँ से मिलेंगे। लेकिन कुछ लोग हैं जो हिम्मत-दिल और दिमाग साथ रखते हैं। कुछ लोग हैं जो शहीदों से शहीदों के जाने के बाद भी जुड़े हुए हैं।
ऐसे ही एक घुमक्कड़ गुरु हैं विकास मन्हास, भद्रवाह के रहने वाले। पेशे से ट्रैवल गुरु और दिल से फौजी।
घुम्मक्कड़ शास्त्र, जो अब तक नहीं लिखा गया, उसमे लिखा है कि चलते जाओ, बिना रुके बिना थके। जहाँ तक नजर जाए, वहां की दिशा पकड़ लो और चलते जाओ। लेकिन अगर आप एक ‘टूर ऑपरेटर’ हैं, ट्रेवल एजेंसी चलाते हैं तो अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम से हट के इधर उधर निकलना असम्भव होता है।
और अगर आप टूर ऑपरेटर नहीं भी हैं, सरकारी मुलाजिम हैं, नौकरीपेशा हैं, बेरोजगार हैं, तो भी अपनी मनमर्जी करना बहुत मुश्किल होता है। आजकल के प्लान तो बन्द कमरे में, महँगे ऐसी की दमघोटू हवा में बनते हैं और एक मिनट भी इधर से उधर हो जाए तो या तो बस/ट्रेन छूट जाती है, या नौकरी पे बन आती है।
अब सब तो हरीश कपाड़िया जैसे हठी हो नहीं सकते।
पर एक घुमक्कड़ ऐसा भी है, जिसके लिए ये ‘रूल एंड रेग्युलेशन’ मायने नहीं रखते। एक ऐसा घुमक्कड़ जो शहीद फौजियों को याद करने के लिए फेसबुक/ट्विटर के ‘कीबोर्डात्मक मायाजाल’ से अक्सर बाहर निकलता है, और सीधा उनके घर जाके सुख दुःख बांटता है।
फिर चाहे जम्मू हो या कन्याकुमारी।
विकास मन्हास ‘जम्मू-भद्रवाह’ में अपनी ट्रैवल कम्पनी चलाते हैं, कश्मीर से इतर भी जम्मू राज्य में कुछ देखा जा सकता है, यही इनका मूल मंत्र है। तो इनकेे लिए निर्धारित कार्यक्रम से अगर 100-200 किलोमीटर भी बाहर जाना पद जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं है।
क्यों? क्योंकि देश पे न्यौछावर हो फौजी तो चले गए, लेकिन जो परिवार वाले पीछे रह गए, उनसे मिलने के लिए। शहीद की शहादत की कद्र उसके जाने के बाद ही परखी जाती है।और हिंदुस्तान का तो ट्रेक रिकॉर्ड हमेशा से ही खराब रहा है, चाहे वीर मराठा शिवाजी हो या फिर दशमेश गुरु गोबिंद सिंह |
कानपुर से लखनऊ की दूरी है लगभग 100 किलोमीटर, तो विकास अपनी भारत यात्रा में खुद गाड़ी चलाके कानपुर से लखनऊ गए, शहीद मेजर सलमान खान (शौर्य चक्र, 2005) के माता पिता से मिलने के लिए।
हरीश कपाड़िया, जो की हिंदुस्तान के जाने माने घुम्मकड़ हैं, ने अपना बेटा कुपवाड़ा में में खोया था | विकास इन दो पिताओं की ‘मीटिंग’ के प्रत्यक्षदर्शी रहे | कपाड़िया जी लेफ्टिनेंट त्रिवेणी सिंह का अशोक चक्र देखते हुए, जो की शान्ति के दौरान दिया जाने वाला सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार है |
विकास कहते हैं की ये कहानी शुरू शुरू हुई कभी आतंकवाद का गढ़ कहे जाने वाले भद्रवाह से , जहाँ के रहने वाले विकास खुद हैं |
1994 में भद्रवाह में एक आर्मी कैम्प पे हमला हुआ, और कई फौजी शहीद हुए। उन दिनों किन्हीं कारणवश फौजियों के शव घर नहीं भेजे जाते थे, तो लोकल लोग ही अंतिम सरकार करते थे। मैंने एक चिता पे सात फौजियों को जलते हुए देखा।
खुद फ़ौज में जाने का सपना था, वो तो पूरा नहीं हो पाया पर सिर्फ फौजी ही तो नहीं देश सेवा करते! करगिल के बाद से मैंने दिवंगत फौजियों के परिवारों से मिलना शुरू किया, और इसे एक मिशन मान के चल पड़ा।
तब से लेकर आज तक युद्ध तो नहीं हुए लेकिन फौजी हर साल देश सेवा में शहीद होते रहे हैं। और विकास का मिशन रहा है परिवार वालों से मिलना। कभी चंडीगढ़, कभी पालमपुर, कभी बंगलोर।
न ये ‘प्रॉक्सी युद्ध’ धीमा पड़ता है और न ही इनका मिशन।
मैंने विकास से पूछा, की घर जाने की, बात करने की हिम्मत कैसे जुटाते हो?
फौजियों के घर वाले अपने बच्चों की शहादत सुनाते हैं, गर्व से, 10-20 साल पुरानी कहानियां याद करते हैं, और मैं सुनता हूँ। कुछ कहानियां दुखभरी हैं, तो कुछ हिंदुस्तानी होने पे गर्व का एहसास दिलाती हैं| जैसे फौजी आदेश आने पे सवाल नहीं करते, संशय नहीं आने देते, उसी तरह मैं भी अपने मिशन में ‘क्लीयर’ हूँ, जाना है तो जाना है |
मेजर सुधीर वालिया, अशोक चक्र (2000) को हिंदुस्तानी फ़ौज का रैम्बो कहा जाता है| अमरीका में कमांडो कोर्स के लिए चुने गए और वहां भी सब देशों के कमांडो को पछाड़ के ट्रेनिंग में ‘टॉप’ किया |और एकमात्र हिंदुस्तानी फौजी बने जिन्होंने पेंटागन सभागार को सम्बोधित किया | निसंदेह हिमाचल और पालमपुर की शान |
विकास का कहना है अगर राज्य का प्रशासनिक अमला, यूनिट का CO और राज्य सरकार साथ हो तो फौजी परिवार शहीद के जाने के बाद भी परेशान न हो। वैसे ये सब बातें हमारे हाथ से बाहर हैं, लेकिन एक बात हमारे हाथ में जरूर है|
अपने आस पास के किसी फौजी परिवार से मिलिए, मिलते रहिये, उनकी कहानियां सुनिये, जो लड़ाई फौजियों ने लड़ी, वो उनकी पारिवारिक लड़ाई नहीं थी |
वो हम सब की लड़ाई थी |
ये हम सब की लड़ाई है |
Almost a decade back, I had a chance to share very best moments of my life with Vikas Sir….His passion, energy, personna, dedication and attitude towards life, nation n army in particular always inspires me a lot….Since, then I only once had a chance to share a coffe at barista with him in these 10 yrs, but still m an avid follower of him albeit on FB….Salute to You Sir, u r and shall be an inspiration for all of us today n in years to come…
इस जवान के जज्बे को सच्चे दिल से नमन