नीले बर्फीले स्वप्नलोक में
प्रकाशक: नेशनल बुक ट्रस्ट
लेखक: शेखर पाठक
मूल्य: १00/100 (२०/20% छूट मोबाईल वैन से खरीद पर)
नेशनल बुक ट्रस्ट अपनी मोबाईल वैन हर छोटे कसबे में घुमाता रहता है ताकि लोगों में साहित्य के प्रति रूचि जागृत हो| अपने सुंदरनगर में भी एक ऐसी ही एक मोबाईल वैन एक दिन दिख गयी| वहीँ एक किताब पर नीले कैलाश का चित्र दिख गया| कैलाश की एक झलक, चाहे वो फिर किसी किताब के पन्ने पर ही क्यूँ न हो – मंत्रमुग्ध कर देती है | बस मैंने भी सम्मोहित हो किताब उठा ली|
शेखर पाठक कुमाऊं विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक रहे हैं | इन्होने हिमालय पर काफी शोध-पत्र लिख रखे हैं | इन्हें महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन अवार्ड से भी पुरस्कृत किया गया है |
‘नीले बर्फीले स्वप्नलोक में’ एक यात्रा वृतांत के रूप में शुरू होती है लेकिन धीरे धीरे लेखक के अन्दर का इतिहासकार बाहर आता है और ऐतिहासिक घटनाओं से आपका परिचय करवाता है |
स्कूल की किताबों में अगर मानसरोवर का इतिहास पढाया जाए तो मेरा मानना है की बच्चे भी इतिहास को रट्टा न लगाकर प्रेम से पढेंगे |
शुरुआत में कहानी थोड़ी बोझिल हो जाती है क्यूंकि गाँव के नाम, घाटियों के नाम, और फूल-पत्ते-पेड़ों के नाम याद करना और समझना सबके बस की बात नहीं है | कुछ गाँवों के नाम तो समझ न आने का भी खतरा है | लेकिन जिस कुशलता से लेखक ने नदियों की व्याख्या की है वो सराहनीय है | हर एक नदी का उद्गम स्थल जैसे लेखक का देखा जाना हो | नदियों से मेरा ख़ासा लगाव है तो मुझे ये भाग काफी पसंद आया|
अब जैसे ही कहानी उत्तराखंड को छोड़कर तिब्बत में घुसती है, कहानी में तेज़ी और मजा दोनों बढ़ जाते हैं| तिब्बत के पठार , नंगे पहाड़, और इधर उधर से भागती नदियाँ आपको भी वादियों में ले जाती हैं | और साथ ही पता चलता है की क्यूँ चीन ने वहां सड़के बना ली और हमें दिक्कत आती है हमारे पहाड़ों को चीरने काटने में | तिब्बत के पठार और भारत के हिमालय में जमीन आसमान का अंतर है|
मानस की पहली झलक, कैलाश के दर्शन, और चार धर्मों के संगम की कथा – जिसे कैलाश कई सदियों से देखता सुनता आ रहा है – उसे लेखक ने खूबसूरती से ‘दिखाया‘ है | जैसे जैसे कैलाश की परिक्रमा शुरू होती है, हर पन्ने पे आपको बस कैलाश नजर आने की सम्भावना मिलेगी|
शेखर पाठक का तिब्बत और बुद्ध धर्म के प्रति लगाव साफ़ दिखाई पड़ता है| तिब्बत की वेदना को समझने के लिए जो सवाल अपने मन में वो लिए घुमते हैं, शायद आपके मन में भी वो सवाल घर कर जायेंगे| कैलाश का पर्वतारोहण इतिहास भी बखूबी समझाया गया है| और इस भाग को खासकर पर्वतारोही खूब पसंद करेंगे|
कुछ मनोरंजक पहलू इस पुस्तक से:
“मैं भीतर जाने लगा तो शिव-शंकरन बाहर आये| उनका पेट कुछ गड़बड़ था| मैंने सुझाव दिया की खुले में हो आओ| मान गए, लेकिन थोड़ी देर बाद फिर वापिस| कहने लगे कैलाश की उपस्थिति में विसर्जन? ऐसा कैसे होगा? मैं उनकी दिक्कत नहीं समझ पाया| कहने लगे मैं न कैलाश की और देख के कर सका और न उसकी तरफ पीठ करके| हर वक़्त कोई देख रहा है, ऐसा लगता है – सामने है बोलता पहाड़”
“स्वामी प्रणवानंद ने पहली कैलाश यात्रा १९२८ में की थी, और १९३५ से लघभग हर साल वो कैलाश जाते रहे | वे कैलाश मानस के आस पास कई महीने रहे हैं, जैसे १९३६-३७ में १२ महीने| १७ अगस्त १९४७ को स्वामी जी मानस में अपनी ज्ञान नौका चलने में सफल रहे – धरा के केंद्र में खड़े हम”
बौध, जैनी, हिन्दू, और बोनपा – सब लोग कैलाश यात्रा करते हैं| क्यूँ करते हैं, इसका लिखित क्या इतिहास है, इसकी सतही जानकारी इस किताब में मिल जाएगी |
और अंत में पढ़ें वो कविता जो शेखर पाठक ने २१ अगस्त १९९० की रात को दर्चिन में परिक्रमा के बाद लिखी थी
इतने अकेले होकर भी, कितने घिरे हो
और इतने घिरे होकर भी, तुम कितने अकेले हो,
कैलाश|