ब) कंडक्टर से दोस्ती हो जाती है, कंडक्टर गाँवों/छोटे शहरों में बहुत काम की चीज़ होती है
स) किराया नहीं लगता
फिर पूरे एक घंटे खड़े रहने के बाद और “अगम कुमार निगम” के दर्द भरे गीत सुनने के बाद बस में जान आई, सवारियों को ज्यादा फरक नहीं पड़ा, पर मेरी रुकी हुई धड़कन एक बार फिर चल पड़ी, बस थोड़ी देर और रुकी रहती तो मैं १२ किलोमीटर कि यात्रा पैदल ही तय कर लेता | कंडक्टर ने १०-२० लोगों को छत का रुख करने को कहा और खुद गुटका चबाता हुआ [राह चलते] लोगों से गप्पें मारता हुआ बस को चलने का आदेश दिया | रविवार के दिन बसें कम होती हैं, और सवारियां इकठी हो हो के अथाह हो आती हैं, तो बस के अन्दर पूरा कुम्भ का मेला लगा हुआ था, और मेरे बगल में बैठी हुई आंटी मजे से मूंगफली खा रही थी और छिलके बस में ही फेंक रही थी , एकदम आराम से, भीड़ भड़क्के से कोई फरक नहीं पड़ा उसको| मूंगफली मुहं में और छिलका बस के अन्दर, एकदम अचूक निशाना |
खैर बस चली, धीरे धीरे, मेरी परेशानी का लेवल बढ़ता चला गया और सवारियां उतरती चढ़ती चली गयीं, पांच उतरती थी, दस चढ़ती थी, भीड़ ख़तम होने का नाम नहीं लेती थी| पूरी बस में मुझे छोड़ के कोई भी विचलित नहीं था बस की देरी को लेकर के, उनके लिए रोज का काम था, उनके लिए इन्तेजार करना ही जीवन है और मेरे लिए तेज़ भागना, जल्दी जल्दी, सब कुछ जल्दी चाहिए, बस एकदम से| वहां जिंदगी बहुत धीमे से चलती है गाँव में| धीरे धीरे गाँव बदल रहे हैं, जमीन है पर खेती नहीं है क्यूकी अब खेती नहीं कोई करना चाहता, कुछ आई.आई.एम् और आई.आई.टी वाले कहते हैं कि खेती करेंगे पढ़ लिख के पर बाकी सबको शेहेर जाना है| मेरा एक दोस्त है आई.आई.एम् लखनऊ का , कहता है गाय पालेगा, खेती करेगा, भाई अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है, खेती नहीं करेगा तो शेहेर वाले तो कहीं के नहीं रहेंगे, अब पहाड़ों में हरियाली न रही तो काहे के पहाड़? पूरे डेढ़ घंटा गाँव गाँव में घूमने के बाद मैंने पांच किलोमीटर का सफ़र तय किया, अब मैं भी एक गाँव वाला हो चुका था, कोई जल्दी नहीं, कम से कम एक बस तो है , पैदल चलने से तो वही अच्छा है, यही संतुष्टि का भाव लिए उतर गया मैं |
मैं भी एक गाँव में ही रहता हूँ सुंदरनगर में , आप भी एक गाँव से ही आये हैं, आज दिल्ली, मुंबई, गुडगाँव में हैं, पर घर आपका भी गाँव में ही है, एक छोटा सा गाँव, जहाँ आज भी वही मिनी बस चलती है, कम सीटें और ज्यादा सवारी के साथ| वहां बसों का इन्तेजार करना एक जरुरत है , आएगी तो आएगी नहीं तो पैदल चलो| मंडी, काँगड़ा, हमीरपुर, सोलन, कुल्लू, शिमला, सब जगह यही मिनिबस चलती है, वही पीला रंग, वही शेर-ओ-शायरी , वही दिलजले ड्राइवर, और वही घिसे-पिटे से रूट |
पर कभी घर आओ “एक हफ्ते” कि छुट्टी पे तो बैठना इस मिनिबस में, मजा आएगा |
Overloaded with entertainment!:)
Mast. Really enjoyed this. Was definitely in a gaon for some time, as I read.
amazing..