(जीवन) यात्रा!
कहाँ जाओगे साहब?
मंदिरों की तरफ जाएगी ये बस?
हाँ साहब , पूरे रूट पे सिर्फ हमारी बस चलती है, आओ बैठ जाओ, बस ३५ किलोमीटर है यहाँ से, रोज आपके जैसे कई टूरिस्ट आते हें, मंदिरों तक जाते हें, दो घंटा घूमो फिरो, फिर इसी बस में वापिस|
हाँ चलो, कैसा अजीब आदमी है, कितना बोलता है और ये बस भी अजीब सी है, कांट छांट के बनायीं हुई लगती है, टांगें फंस जाएँ इसमें बस, सोचते हुए उन्मुक्त बस में बैठ गया |
और आधा घंटा धूप में गरम होने के बाद बस निकल पड़ी मंजिल की ओर| नए नए मंदिर ढूंढें थे पुरातत्व विभाग ने, नदियों में डूबे हुए, नदी का स्तर हर साल की तरह इस साल कुछ एक फीट और नीचे चला गया था, और तब प्रकट हुए थे मंदिर, पांडवों ने बनवाएं हों, ऐसा जान पड़ता था, लगा हुआ था विभाग अपनी खोज बीन में पर कुछ उत्सुक प्राणी, जैसा की मेरा दोस्त उन्मुक्त , इन जैसे लोग अक्सर पहुँच जाया करते थे, देखने, कुछ नया और नायब सा|
उन्मुक्त काफी खुश था, कारण एक तो तरक्की हुई थी, प्रोजेक्ट मेनेजर बन गया था और दूसरा एक हफ्ते की छुट्टी थी , घूमने फिरने का इरादा था और जिंदगी की भाग दौड़ से ब्रेक भी जरुरी था, तो निकल आया जंगलात की तरफ| नया नया आई -फोन लिया था, गाने भी चुन चुन के लाया था | बस में बैठते ही सबसे पहला काम किया अपना फोन चालु किया और गीत संगीत की महफ़िल सी लग गयी| नदी किनारे बस चल रही थी और रेत के टीले से बने हुए थे, जिंदगी में एक साथ इतनी शान्ति उसे शायद बचपन में ही मिली होगी|
बस काफी धीमे चल रही थी, शायद पैदल चलने वाला भी आगे निकल जाए, अक्सर पहाड़ी जगहों में बसें , प्राइवेट बसें धीरे ही चला करती हें, ना जाने किस पहाड़ से, मोड़ से या घाटी से आदमी निकल आये, बसें कम होती हें दूर-दराज वाली जगहों में तो बस वाले चारों दिशाओं में देखते हुए, ताकते हुए चलते हें की कहीं कोई सवारी छूट ना जाये, दूसरी बस का क्या भरोसा, मौसम ख़राब हुआ तो इधर के लोग इधर और उधर के उधर| पर शेहेर वालों को ये बातें जरा कम समझ आती हें, बस इसीलिए उन्मुक्त भी परेशान था की भैय्या चलाओ तो सही, थोडा दम लगाओ, गाड़ी भगाओ| बंगलोर से हिमाचल आने में चार घंटे और यहाँ बीस किलोमीटर के लिए दो घंटे, सोचते हुए उन्मुक्त कुढ़ रहा था |
एक दो बार कंडक्टर ने उसकी तरफ देखा भी तो उन्मुक्त को लगा की अब शायद मिल जाएगा पैसा वापिस , साथ वाली सीट पे बैठे बूढ़े ने पैसे मांगे तो कंडक्टर ने उसे पहाड़ी में माँ बेहेन सुना दी, देखकर उन्मुक्त को ६५ रुपये सरकार से पैसे निकलवाने से भी मुश्किल काम लगने लगा|
इस बीच बस नदी के बीचों बीच से गुजरती हुई निकल गयी, बड़े बड़े पहाड़ काटती हुई, नदी ने विचित्र से अजूबे बना दिए था पत्थरों के, पर उन्मुक्त नहीं देख पाया उनको, वो कंडक्टर की बेईमानी को गाली दे रहा था, आई फोन में दूसरी प्लेलिस्ट चालु हो चुकी थी|
उन्मुक्त उन बड़ी बड़ी मूर्तियों को भी नहीं देख पाया जिनका नाम लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में दर्ज था, क्यूंकि कन्डक्टर दायें हाथ के दरवाज़े पे खड़ा था और मूर्तियाँ बायीं तरफ थी| मूर्तियाँ रेत से बनी हुईं थीं, खुद – ब – खुद , न हथोडी न छैनी, सब कुदरत का करिश्मा, पर उन्मुक्त ७५ रुपये के लिए अपनी आत्मा को झुलसा रहा था|पिछली रात उसने विकिपीडिया पे पूरी मेहनत से जानकारी खोजी थी इन मूर्तियों के बारे में और अब जब मूर्तियाँ सामने थी तो वो बस गर्दन घुमा के देखना ही भूल गया|
उन्मुक्त ने हिम्मत इक्कठी की पैसे मांगने की पर उन्मुक्त को घबराहट हो रही थी कि सबके सामने अगर इसने फिर खाली झोला दिखा दिया तो बड़ी बेइज्जती होगी|
इसी बीच देश की सबसे लम्बी सुरंग भी निकल गयी, उन्मुक्त उसे भी ना देख पाया अँधेरे में भी वो कन्डक्टर के चमकते झोले को देख रहा था, की कब उसमें से कुछ निकले और उसकी चिंता ख़तम हो| उस सुरंग के बारे में उन्मुक्त ने अमेरिका के किसी अख़बार में पढ़ा था, जब वो ६ महीने पहले कंपनी के काम से गया था और उसने सोच रखा था की जरुर देखेगा जाके|
खैर, ६५ रुपये का जादू उसके सर चढ़ चुका था| सुरंग का अँधेरा छंट गया और उन्मुक्त की नजरें गडी हुईं थीं कंडक्टर पर, उसके झोले पर| रह रह कर उसे यही याद आ जाता की देगा पैसे वापिस या नहीं|
और पीछे से एक आवाज़ आई, साहब रुकना जरा |
पीछे खून में लथपथ कंडक्टर भागता हुआ आया, और उसके हाथ में एक पचास का और एक दस का नोट पकड़ा कर वापिस मुड़ गया, छन्न कि आवाज़ आई और पांच रुपये का सिक्का, खून सना हुआ नीचे गिर गया था|
जेब में रखे आई फोन से बीप कि आवाजें आनी शुरू हो गईं , शायद बेट्री ख़तम हो गयी थी|
Based on a true story
October 4, 2011 - 10:51 am
again the theme 'live life' highlighted by you so wonderfuly and simply:)
October 7, 2011 - 6:38 am
interesting and very common story .
November 4, 2011 - 6:51 am
बहुत आछे से समाप्त किया|