और अभी कितना चलेगा जनाब, कितनी दूर है मंदिर? हाँफते हुए मैंने बकरियां चराने वाले से पूछा |
बस साहब पंद्रह मिनट और लगेंगे बस |
पानी मिलेगा आपके पास?
वहां नल है साहब, उससे अपनी बोतल भर लीजिये |
पानी साफ़ तो रहेगा ना?
अरे साहब, यहाँ कैसे पानी गंदा होगा, जब गंदा करने के लिए इंसान ही नहीं है तो गंदा कैसे होगा?
मैने पानी की बोतल भारी और अपने दिमाग़ में १५ मिनिट को २० मिनिट मान के निकल पड़ा | २० मिनिट के ४५ मिनिट हो गये, पर मंदिर नहीं आया, बोतल का पानी भी ख़तम हो चुका था, प्यास बहुत लगी थी और मैं अपने आप को कोस रहा था की क्यूँ नेतागिरी के चक्कर में पड़कर बिसलेरी नहीं खरीदी? ये इंसानी फ़ितरत है की जैसे ही मुसीबत आती है या काम पूरा हो जाता है, आदमी वापिस तुरंत से अपने कॉम्फर्ट ज़ोन में घुस जाता है | मेरे अंदर का पर्यारणविद भी जान हार गया तीन घंटे की चढ़ाई चढ़ते हुए| मुझे भी लगने लगा की एक बोतल खरीद ली होती पानी की और तो काम आ जाती|
शुरू में जब लोगों से पूछा तो उन्होने कहा की बस दो घंटे जाने में और डेढ़ घंटा आने में, पर यहाँ दो से तीन घंटे हो गये पर ना तो मंदिर दिखा और ना ही झील| आस पास बात करने को कोई इंसान भी नहीं दिखाई पड़ता था, बात की जाए तो किससे की जाए | प्यास से बहाल होके मैं भेड़ बकरियों के झुंड के पास जाके निढाल होके लेट गया| थोड़ी देर में जब शरीर में फिर से जान आ गयी, तो उठा और चलने लगा फिर से मंज़िल की ओर, १५ मिनिट जब तक ख़तम नहीं हो जाते, मैं भी चलता जाऊँगा | जैसे ही मैं उठा, पीछे से एक आवाज़ आई, बैठ जाओ थोड़ी देर और बेटा, अभी तो दूर है काफी| वैसे भी इंसानी सांगत कम ही मिलती है इधर , थोड़ी देर बैठ के बात कर लो|
उसके दूर कहने की देर थी और मैं गुस्से से भर उठा, की एक तो मनहूस खबर सुना दी और अब बैठने को कहा जा रहा है, गप्प लड़ायेंगे इधर जंगल में? पर इंसानी संगत की जो बात उसने कही तो मेरा दिल भर आया क्यूंकि मुझे तीन घंटे में किसी बन्दे के साथ ना होने से इतनी उदासीनता और चिडचिडाहट सी हो रही थी , तो वो तो पता नहीं कब से अकेला वहीँ था|
मैंने पुछा, बाबा क्या करते हो? और इंसानी संगत का मतलब?
अरे कुछ नहीं, जमीन है हमारी यहाँ पर, 28 बीघा |
२८ बीघा सुन कर मुझे कुछ समझ नहीं आया, २८ बीघा में तो वो पूरे पहाड़ के मालिक बन जायेंगे, और इतनी जमीन उनकी कैसे हो गयी?
आपने खरीदी या आपकी ही है शुरू से, और आप देखभाल कैसे करते हो इसकी?
बस अभी अभी खरीदी है, पचास हजार एक बीघा का, यानी की 14 लाख की जमीन| १४ लाख की जमीन और वो भी उन पहाड़ों में जहाँ कोई आता जाता नहीं, सुन कर अजीब लगा और वैसे भी मेरी थकान बढती जा रही थी , तो मैंने उसकी जमीनी कार्यवाही में ज्यादा इंटेरेस्ट शो करते हुए वहीँ बैठने के निर्णय ले लिया|
रहना चाहते नहीं, जमीन प्यारी कैसे हुई फिर? और यहाँ रहेंगे कैसे?
अरे लोग रहते हैं यहाँ, इक्का दुक्का ही सही, पर रहते हें, कुछ की मजबूरी है, कुछ को कहीं और जाने का मन नहीं करता, पर मेरे बच्चे यहाँ नहीं रहना चाहते|
मैंने सोचा की मैं किसी के लिए १४ लाख का गिफ्ट लूँ और जिसके लिए लूँ, उसे ही पसंद ना आये, तो या तो मैं पागल हूँ या फिर बहुत अमीर|
जब आप के बच्चे रहेंगे ही नहीं यहाँ, तो ये जगह किसके काम आएगी?
काम तो ये किसी के भी नहीं आएगी, चाहे कोई रहे या ना रहे| बस ये एक दौड़ है, अंधी दौड़ की जमीन खरीद लो, कभी ना कभी तो बिक जाएगी, जब दाम बढ़ेंगे |
पर वो यहाँ क्यूँ नहीं रहना चाहते?
बस बेटा वैसे ही, जैसे तुम और तुम जैसे लोग शेहेर में नहीं रहना चाहते| हम सब भाग ही तो रहे हैं, तुम वहां से यहाँ , और हम यहाँ से वहां| बीते साल में एक लड़की आई थी, उसे बहुत सारे लोगों से प्रॉब्लम थी, कहती थी की सब जगह लोग ही लोग हें, भागते दौड़ते, गिरते पड़ते, लोग ही लोग, मैं निकल आई, मैं और नहीं भाग सकती थी, नौकरी छोड़ के भाग आई इस तरफ| यहाँ मेरे लड़के हें, उन्हें लोगों के ना होने से दिक्कत है, पैसा बहुत था, पर देखने वाला कोई ना था, पैसे का मजा पैसे में नहीं है, पैसे का मजा पैसे के दिखावे में है, बस उनको वो मजा लेना था, उन्होंने शहर में बसेरा कर लिया| अब जब दिखावे का पैसा याद आता है, तो उनको इस जमीन की याद आती है| कहीं लोग लोगों के ना होने से भाग रहे हें, कहीं लोगों के होने से| जो गाँव में है, उसको शहर जाना है, जो शहर में है, उसको गाँव में आना है, कुछ को घूमने के लिए और कुछ को बसने के लिए|
और ऐसा क्यूँ हो रहा है? ऐसा तो हमेशा से ही होता है ना?
हाँ होता तो हमेशा से ही है, बस आज कल जरा दौड़ अंधी हो गयी है, जाना सबको है पर क्यूँ जाना है ये नहीं पता|
आप क्यूँ नहीं गए अपने बच्चों के साथ?
मैं बूढा हो गया हूँ, और नयी जगह जाके नए सलीके सीखने से अच्छा है की यहीं रहूँ पहाड़ों में, आराम से पुराना आदमी हूँ, पुराने तरीके से ही जी लूँगा| और रही जमीन की बात तो इससे मुझे प्यार सा हो गया है, जब कोई तुम जैसा भूला बिसरा आ जाता है तो लगता है की कोई तो चाहिए इस जमीन की रखवाली के लिए नहीं तो ये जगह भी जंगल बन जाएगी, कंक्रीट का जंगल| मैं तो मैं तो कबसे ये जमीन खरीदना चाहता था, बस डरता था की बच्चे कहेंगे बूढा पागल हो गया है, 14 लाख में पहाड़ खरीदेगा, पर उनको जमीन के पैसे से मोह था, मुझे पहाड़ों से| वो मजा आज से दस साल बाद ढूंढ रहे हैं, मैंने आज में ही ढूंढ लिया |
पर इंसानी संगत बहुत जरुरी है, बिना उसके जिंदगी का कोई मतलब नहीं है, कोई सुनने वाला, कोई देखने वाला, कोई बोलने वाला साथ ना हो तो इन्सान इन्सान नहीं रहता, शायद इसीलिए शादियाँ होती हैं, की कोई हमेशा साथ रहने वाला रहे| बस यहीं अंधी दौड़ में हम मात खा गए, साथ चलना भूल कर आगे भागना सीख लिया, सबको सबसे आगे जाना है, अरे सबसे आगे जाके किसीको बताने का मन करेगा तो किसको ढूँढोगे? बस इसीलिए मैं इंसानी संगत ढूँढता हूँ, की कोई मिल जाए, जिससे बात हो जाए, दिल हल्का हो जाए|
एक गडरिया मुझे इतनी बातें समझा गया, जितना मैंने सोचा नहीं था| बस मुझे एक बात नहीं समझ आई, जब सब अच्छे के लिए ही होता है, तो हम इतना क्यूँ सोचते हैं? होने दो जो हो रहा है, होना तो अच्छा ही है|
या शायद सब अच्छे के लिए ही होता है, यही सबसे बड़ा झूठ है|
खैर उससे विदा लेकर मैं चलने लगा तो एक और घुमक्कड़ मुझे मिला, थका हारा, बिन पानी के|
कितनी दूर है अभी मंदिर और?
बस पंद्रह मिनट और हैं दोस्त, मैंने कहा और हम साथ चल दिए|
हर किसी के बस की बात नहीं है, अकेला रहना भी।
सही कहा …एक बार मैं और मेरी बीवी ……गुलमर्ग में फस गए थे …वहां एक सेमीनार लिया था हमने ….tyndale biscoe स्कूल के teachers का …दिन में तो बड़ी रौनक रही..फिर हम वहीं रुक गए …शाम को ऐसा सुनसान हो गया ….बोरे हो गए हम दोनों …भाग आये अगले दिन …….अकेले रहना सब के बस की बात नहीं
आज का इंसान अपने आप से दूर भागता जा रहा है जो की एक मृगतृष्णा भर है , लेख मे एक सच्ची भावुकता को छु कर निकल गए आप । फिर भी अच्छा लगा पढ़ कर ।.