लॉकडाउन की पढ़ाई

हुआ यूँ कि लॉकडाउन में वजन बढ़ गया सात किलो और उसके मुकाबले में ज्ञान/जानकारी में मात्र पॉंच किलो वृद्धि हुई। मार्च 22 से अगस्त 22 तक मैंने पॉंच किताब पढ़ी क्यूंकि अब ट्रेकिंग बंद है जिस कारण ब्लॉग भी वेंटिलेटर पर चला गया था इसलिए मैंने सोचा क्यों न सब किताबों की छोटी-छोटी समीक्षा लिख दी जाए।

पॉंच में से चार किताब मैंने अंग्रेजी में ही पढ़ी पर समीक्षा हिंदी में करूँगा


The Battle for Rama: Case for the Temple at Ayodhya

अयोध्या का मामला खूब उछला , सुप्रीम कोर्ट का डिसीजन आने से पहले अयोध्या पर रोमिला थापरों और राजदीप सरदेसाइयों का क्रंदन शुरू हो चुका था, कोर्ट में फर्जी गवाहियां देने वालों का गिरोह एक बार फिर सक्रिय हो चुका था इसलिए अपुन ने सोचा क्यों न पद्मश्री मीनाक्षी मीनाक्षी जैन की अयोध्या पढ़ी जाए। और ये बहुत अच्छा निर्णय सिद्ध हुआ

मीनाक्षी मीनाक्षी जैन बारहवीं बाहरवीं सदी के समय से शुरू करती हैं और उससे आगे की हर सदी के महत्वपूर्ण हिस्से पर रौशनी डालती हुई पहुँचती हैं 1949 में। 1949 से लेकर 1989 तक बातें होती हैं पर राजीव गाँधी के आते ही मामला देशव्यापी हो जाता है। शाह बानो की आत्मा की हत्या के बाद राजीव गाँधी एक और राहुल गाँधी लेवल की हरकत करते हुए सीधा अयोध्या में राम मंदिर पहुँचते हैं और उसके बाद शुरू होता है लेफ्टिस्टों/कम्युनिस्टों का नंगा नाच। मंदिर बनने / न बनने से आप असहमत हो सकते हैं पर इस किताब के माध्यम से आप इस निर्णय पर अवश्य पहुंचेंगे कि लेफ्टिस्ट हिस्टोरियन से बड़ा ठग इस देश में कोई नहीं हुआ है। अदालतों में झूठ, अख़बारों में झूठ, अदालती निणर्य आने के बाद टीवी चैनलों पर झूठ – इस देश की आग में मिटटी तेल डालने का प्रोफेशनल ठेका हमेशा से कम्युनिस्टों के पास रहा है। उदाहरण के लिए ये कथा सुनिए

1992-1993 में बाबरी मस्जिद स्थल पर एक शिलालेख मिला – 5 फीट X 2.25 फीट। हाई कोर्ट के आदेश पर भूतपूर्व डायरेक्टर – डॉक्टर रमेश को छानबीन के लिए भेजा गया। एक नॉर्मल छानबीन में आप चाय पीकर, बड़ी गोल्ड फ्लेक के मीडियम कश लगाते हुए, रेबैन के काले चश्मे से रंगीन दुनिया देखते हुए कुछ भी लिख दो, फाईल धूल फांकती रहेगी पर हाई कोर्ट के आदेश पर चश्मा उतारना ही पड़ता है।

डॉक्टर रमेश ने भी चश्मा उतार कर गहन छानबीन की, पड़ताल में पता चला कि शिलालेख में 20 पंक्तियाँ लिखी गईं थीं। शिलालेख वाला स्लैब बीच से टूटा था इसलिए लगभग हर पंक्ति में कुछ शब्द गायब हो गए थे। ये भी पता चला कि शिलालेख शुद्ध संस्कृत में था और 12वीं सदी के आस पास का था। शिलालेख पर नाम लिखा था राजा गोविंदचंद्र का (1114-1155)

इसके बाद शुरू हुआ लेफ्टिस्टों का नंगा नाच

डॉक्टर मंडल ने 1999 में लिखा , ” अगर शिलालेख ‘सही भी है’ तो भी मंदिर कहीं और ढूंढो। यहाँ नहीं है

उसके बाद सीता राम रॉय बोला, “शिलालेख में जो विष्णु हरि का नाम है वो भगवान विष्णु हो ही नहीं सकता, जरूर वो किसी विष्णु हरि नाम के बन्दे के बारे में है” (जब कोर्ट में जज साहब ने सवाल किए तो रॉय साहब पेंट में मूत दिए और बोले कि आर्टिकल लिखे जाने तक मैंने न शिलालेख देखा था, न उसकी डॉक्टर रमेश द्वारा की गई डिकोडिंग पढ़ी थी..
….फिर लिखा क्यों? बस ऐसे ही सेक्सी लग रहा था)

इसके बाद आया डॉक्टर श्रीमाली फ्रॉम दिल्ली यूनिवर्सिटी, वो बोला कि ये शिलालेख ही फर्जी है। ये सरकार ने रातों रात शिल्पकार बुलाकर बनवाया है।

फिर आया डॉक्टर इरफान हबीब, वो बोला कि ये सरकार ने किसी दूसरे म्यूजियम से उठवाकर यहाँ रखवाया है। शिलालेख असली है, जो लिखा है वो भी सच है, पर इसको कहीं और से लाया गया है।

(जिस तरह के लेख उसने People’s Democracy में लिखे, ऐसा जान पड़ता है जैसे अटल बिहारी वाजपेयी और अडवाणी खुद घोड़ा बग्घी में जुत कर वो शिलालेख वहाँ ढो कर लाए थे)

इन्डियन हिस्ट्री कांग्रेस, 2006 में डॉक्टर हबीब ने अपनी रिसर्च को एक स्टेप और आगे ले जाते हुए ये भी कह दिया कि शिलालेख लखनऊ म्यूजियम से अयोध्या लाया गया है। Case Closed..

कोर्ट में सब दावे फैल हो गए। जज साहिबान ने उनके झूठों को सुनकर अपना सर पकड़ लिया और कहा, “मेरी तरफ मत देखिए, मैं आपकी कोई मदद नहीं कर पाऊँगा।”

शिलालेख बाहर से नहीं लाया गया था, ये कोर्ट में सिद्ध हुआ। ऐसे ही कई झूठों की परतें कोर्ट में खुलीं जो इन माओ जेडोंग के दत्तक पुत्रों ने 20 साल से कहे थे…

और आज राम मंदिर मामले पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय के बाद वही कोर्ट में झूठी गवाही देने वाले हिस्टोरियन वही झूठ एक बार फिर ट्विटर पर लिख रहे हैं।

अयोध्या मामले का पूरा इतिहास जानने की इच्छा रखने वालों को ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए।


Durbar

तवलीन सिंह को आजकल के लोग जानते हैं उनके पुत्र आतिश तासीर और आतिश के OCI कार्ड के विवाद के कारण पर तवलीन सिंह को जानने और मानने का उससे भी बड़ा और बेहतर कारण है जरनैल सिंह भिंडरवाला। खालिस्तान मूवमेंट के दौर में जब भिंडरावाला श्री हरमंदिर साहब गुरद्वारा में डेरा जमाए बैठा था तब तवलीन सिंह ही उससे इंटरव्यू करने गई थी। पहली मुलाकात के बाद उन्होंने अख़बार में लिखा “Why Am I Ashamed to be a Sikh”

दूसरी मुलाकात में भिंडरावाले ने भरी सभा में, क्लाश्निकोव लहराते हुए उन्मादी सरदारों के बीच उनके द्वारा लिखे गए लेख के लिए तवलीन सिंह को डाँट दिया, पर अगर वो सिख थे तो तवलीन भी सिखणी थीं , न उनकी कलम रुकी न उनके कदम। पँजाब के आतंकवाद पर तवलीन जैसी रिपोर्टिंग कोई और नहीं कर सका।

दरबार में ही तवलीन सिंह हमें बताती हैं कि कैसे राजीव गाँधी और सोनिया गाँधी और संजय गाँधी वाइन ड्रिंकिंग -पार्टी गोइंग क्राउड के मेंबर थे और इंदिरा के जाने के बाद एकदम से राजीव भारत देश के प्रधान मंत्री बन गए।

मुझे डर है कि ऐसे ही किसी दिन लालू का अधपगला लौंडा भी बिहार का मुख्य मंत्री बन जाएगा

जुल्फिकार अली भुट्टो द्वारा पाकिस्तान में शरिया कोर्ट लागू करने के बाद उन्माद की खाई में अंतिम छलांग लगाते हुए पाकिस्तान का भी अच्छा विवरण तवलीन सिंह द्वारा इस किताब में किया गया है।दरबार वो दुनिया हमें दिखाती है जो हम सिर्फ टीवी चैनलों के डिबेट में सुनते हैं – किस तरह ये सब राजनीतिज्ञ एक दूसरे के मित्र हैं और किस तरह नालायक-निकम्मे- इन्कम्पीटेंट लोग विश्व के सबसे बड़े देश की घुड़सवारी करते आ रहे हैं।


The Hippie Trail

दूसरे (या शायद तीसरे) लौकडाउन में वांडरलस्ट से ओत-प्रोत एक व्यक्ति ने ट्विट्टर पर कहा कि क्रोमा के खात्मे के बाद मैं बस चला कर पूरा देश घूमूँगा। एक बस में दर्जन भर वांडरलसटियों को भर कर भारत भ्रमण करूँगा

और इस सनसनीखेज खबर की जाँच पड़ताल करते हुए अपन पहुँच गए हिप्पी ट्रेल के रास्तों पर। 1968 में The Beatles के ऋषिकेश आने के बाद – जहां श्री जॉन लेनन के नेतृत्व में The Beatles ने 30 गाने लिखे (Blackbird और Cry Baby Cry जिनमें से कालजयी रचना सिद्ध हुए) – हिप्पियों को ऋषिकेश में जेरुसलम दिखने लगा और महर्षि महेश योगी में जीसस क्राइस्ट। एक तरह से भारत देश में हिप्पियों की बाढ़ आ गई।पर उससे पहले भी अंग्रेज वांडर लस्टिये भारत आते रहते थे। 1956 में 14 यात्री पेरिस से बॉम्बे बस में आए – 2 महीना और 8733 मील की यात्रा रही।उसके बाद पुणे-मुम्बई में चलती नीता वॉल्वो की तरह लंदन, फ्रांस से बसों में भर-भर कर यात्री मुम्बई-कलकत्ता पहुंचने लगे। 1957 में The Indiaman में बैठ 26 यात्री लंदन से कलकत्ता के लिए निकले। कितने पहुँचे-कितने उल्टी-दस्त ने रोक लिए , मुझे नहीं मालूम। पर उसके बाद शुरू हुआ हिप्पियों का दौर…

Magic Bus में श्री Rory Maclean लिखते हैं कि चिलम और सुल्फे में आकंठ डूबे हुए हिप्पी लंदन से बैठते थे तो ईरान-पाकिस्तान के बॉर्डर तक पहुँचते-पहुंचते शरीर के वजन से ज्यादा भांग-चरस-गोला पी चुके होते थे। उसी तरह हिप्पियों की बसें भी अंतरराष्ट्रीय बार्डर पर नाचती-गाती हुईं जाती थीं…

1968 तक मोक्ष प्राप्ति की खोज में The Beatles के पीछे-पीछे चरसी-सूटेरी-बाबे-बाबियाँ तो आए ही, कुछ लोग ऐसे भी आए जो पश्चिमी जीवनशैली से परेशान हो चुके थे और फिर जब वो यहाँ आए, तो आज दिन तक लौट कर नहीं गए…

ऋषिकेश, बनारस, हरिद्वार में मोक्ष प्राप्ति महँगी होने लगी तो हिप्पी हमारी ओर निकल आए। मनाली-कुल्लू-कसोल, उसके बाद क्या हुआ ये आप सब विद्वान लोग जानते ही हैं 😁

जैसा कि कहते हैं – एक चिलमधारी, सबपे भारी – उसी का अनुसरण करते हुए हिप्पी जन 1977-78 तक भारत आते रहे। अफ़ग़ानिस्तान में रशिया का दखल, भारत मे लम्बी नाक वाली की तानाशाही, पाकिस्तान का as usual बेड़ा गर्क माहौल भी इनको सात समंदर पार आने से नहीं रोक पाया।

अंततः जब ईरान में अयातोल्लाह खोमैनी ने काफिरों को पेलना शुरू किया, तब इनका नशा उतरा और ये बस यात्राएं थमीं..

The Beatles के दौर में ही हुए एक श्री राम तिवारी जी, जो भारत दर्शन के लिए आए हुए हिप्पियों को किताबें उपलब्ध कराते थे।

The Beatles और अन्य सभी हिप्पियों के मिशन मोक्ष प्राप्ति के संदर्भ में तिवारी जी एक बेहतरीन बात बोल गए

सवाल था – क्या उन सब को मोक्ष मिला?
जवाब था – The paradise lies in a world other than our own , that’s the biggest mistake


The Deoliwallahs

**देवली कैम्प, राजस्थान (1962-1965)**

दूसरे विश्व युद्ध मे अमेरिकी सरकार ने अमेरिका में रह रहे जापानी-अमेरिकन्स को नज़रबंद/जेल बन्द कर दिया। कहा गया कि ये लोग जापानी दिखते हैं, इनके पुरखे जापानी थे- ये लोग युद्ध मे जापान के जासूस बन सकते हैं। राष्ट्रपति महोदय ने सबको उठवा लिया पर युद्ध खत्म होने पर सबको सरकारी माफीनामा भेजा गया और (शायद) $50,000 मुआवजा भी दिया गया।

1962 के Indo China युद्ध में ऐसा ही कुछ भारत मे भी हुआ। आसाम-कलकत्ता-शिलांग में रह रहे, चीनी-भारतीयों को, जो आसामी/खासी/बंगाली बोलते थे, हिंदुस्तान में पैदा हुए थे, बंगालियों की तरह ही टूटी-फूटी हिंदी जानते थे, उनको भारत सरकार ने उठवा लिया, और भेज दिया राजस्थान के देवली कैम्प में। क्योंकि उनके पुरखे चीनी थे, जो व्यापार करने भारत आए और यहीं के हो कर रह गए, इसलिए सरकार ने मान लिया के ये सब चीन की जासूसी करेंगे।

गाँव में जब कोई ‘बाहर’ से बसने आता है, उस पर पूरी उम्र बाहर वाले का ठप्पा लग जाता है। पर जब सरकार भी पीपल के पेड़ के नीचे पंची कूट रहे, तारा बीड़ी के नशे में आसक्त, बेसुध पड़े बुढ्ढों की तरह सोचने लगे, तो बसे-बसाए घर उजड़ जाते हैं।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन उस समय राष्ट्रपति थे, लाल बहादुर शास्त्री गृह मंत्री थे। लोकसभा में दिए गए अपने व्यक्तव्य में शास्त्री जी ने कहा कि चीनी-भारतीय जासूसी के आरोप में देवली भेजे गए हैं, पर उनमें से किसी पर भी कोई चार्ज नहीं लगेगा, न ही उनके साथ विदेशियों की तरह व्यवहार किया जाएगा। और जल्द ही उन्हें देवली कैम्प से वापिस बंगाल-आसाम भेज दिया जाएगा।

वापिस भेजा जरूर गया, लेकिन 1962 में नहीं, 1963 में नहीं, 1964 में भी नहीं। 1965 में उन्हें वापिस भेजा गया। तब तक उनके बिजनेस/घर/दुकान कब्जाए जा चुके थे। धीरे-धीरे सब चीनी-भारतीय अमेरिका-कैनाडा चले गए। कुछ ने भारतीय नागरिकता त्याग दी, कुछ हर साल 10-12000 रुपया देकर अपनी नागरिकता/परमिट रिन्यू करवाते हैं। इसी उम्मीद में कि भारत सरकार भी एक दिन जगेगी, और कहेगी कि हमसे गलती हुई। अपने ही देश के नागरिकों के साथ जो हमने बर्ताव किया, उसके लिए हम शर्मिंदा हैं।

अपने अधिकार की इस लड़ाई में कैनाडा में रह रहे ये चीनी-भारतीय हर साल टोरंटो-ओंटारियो में इकट्ठे होते हैं, भारतीय दूतावास के सामने धरना प्रदर्शन करते हैं, और इस उम्मीद में वापिस घर लौट जाते हैं कि मोदी जी हमारी जरूर सुनेंगे, उनको विदेशों में रह रहे भारतीयों की आवाज नींद में भी सुनाई दे जाती है। प्रियंका चोपड़ा के ससुराल के सब मेम्बरों को मोदी जी पर्सनली जानते हैं, किसी दिन 70 बरस के यिंग शेंग की दरख्वास्त भी सुन लेंगे…

धरना प्रदर्शन से वापिस लौट रही बस में, चीनी दिखने वाले लेकिन भारतीय नागरिक, यिंग शेंग अपने बूढ़े हो चुके देवली कैम्प के साथियों की ओर देख कर हिंदी गाना गाते हैं

“अजीब दास्तान है ये, कहाँ शुरू कहाँ खत्म
ये मंजिलें हैं कौन सी, न तुम समझ सके न हम”

Deoliwallahs ऐसी ही अनगिनत कहानियों का संकलन है


जल थल मल

रवीश कुमार के एक कार्यक्रम में यमुना जी की दयनीय स्थिति के कारण बताने आए थे सोपान जोशी जी और उसी कार्यक्रम में उन्होंने इस किताब का जिक्र किया था। यमुना जी दिल्ली के वजीराबाद बराज को लांघते ही हरी से काली हो जाती है और आगरा पहुँचते इसमें फैक्ट्रियों से निकलता हरा-लाल-पीला सब रंग मिलकर एक नया ही कलर स्पेक्ट्रम बन जाता है।

सोपान जोशी जातिवाद से शुरू करते हैं – कैसे अंग्रेजों से लेकर दलित नेताओं ने हाथ से और सर पर मैला ढ़ोने की प्रथा रोकने के लिए कुछ कामगर नहीं किया और किस तरह भारत के कॉम्प्लेक्स समाजिक स्ट्रकचर को अंग्रेज़ों द्वारा एक युनिफाइड स्ट्रक्चर बनाने के चक्क्र में ये जातिवाद की जड़ें और गहरी होती चली गईं। साथ ही जोशी साहब इस बात पर भी प्रकाश डालते हैं कि मॉडर्न समाज में केवल पक्के टॉयलेट ही स्वच्छ भारत को सफल नहीं बनाएंगे बल्कि समाजिक सोच को भी बदलना होगा। जल से थल की और थल की मल से गहरी मित्रता के ऐतिहासिक प्रमाणों पर रौशनी डालते हुए सोपान जोशी बताते हैं की किस तरह से हमने जल को थल का और मल को थल का दुश्मन बना दिया है।

 

 


बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ पर एक किताब लिखी है डाक्टर मिश्रा ने Trapped between the Deep Water and Devil

लालू और अंग्रेजी लालू नितीश कुमार ने अपने डिप्टी सुशील मोदी के साथ मिल कर किस तरह तीस साल में बिहार को तीन सौ साल पीछे ले जाने का काम किया, ये सब जानकारी उसमें वर्णित है।

अभी वही पढ़ रहा हूँ

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